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स्वाधीनता संग्राम में बिहार की भूमिका अतुलनीय, पटना और भोजपुर की मिसालें अद्भुत

वीर कुंवर सिंह के विद्रोह की गाथा हर किसी को याद है। विद्रोहियों को दबाने में अंग्रेजों ने कुंवर सिंह का इस्तेमाल करना चाहा था। पटना कमिश्नरी के अंग्रेज कमिश्नर विलियम टेलर बेहद सक्रिय था। डालें स्वाधीनता संग्राम में बिहार की भूमिका पर एक नजर।

By Akshay PandeyEdited By: Published: Sat, 13 Nov 2021 07:34 PM (IST)Updated: Sun, 14 Nov 2021 11:58 AM (IST)
स्वाधीनता संग्राम में बिहार की भूमिका अतुलनीय, पटना और भोजपुर की मिसालें अद्भुत
स्वाधीनता संग्राम में महत्वपूर्म भूमिका निभाने वाले वीर कुंवर सिंह। जागरण आर्काइव।

प्रियरंजन भारती, पटना। स्वाधीनता संग्राम में बिहार की भूमिका अतुलनीय है। इसमें पटना और भोजपुर की अद्भुत मिसालें हैं, जहां लोग स्वाधीनता की उमंग के साथ उद्वेलित हो उठे और अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने की कोशिशों में लग गए। 1857 के संग्राम में वीर कुंवर सिंह के विद्रोह की गाथा हर किसी को याद है। विद्रोहियों को दबाने में अंग्रेजों ने कुंवर सिंह का इस्तेमाल करना चाहा था। पटना कमिश्नरी के अंग्रेज कमिश्नर विलियम टेलर बेहद सक्रिय था। उसने बाबू कुंवर सिंह को भी साथ लेकर क्रांतिकारियों के दमन की कोशिशें कीं। उन्हें आरा जेल में स्थानांतरित किया गया, लेकिन आरा जेल में भी जमकर विद्रोह हुआ। कुंवर सिंह अंतत: विद्रोही हो गए। अंग्रेजी पलटन के पीछे पड़ जाने पर गंगा पार करते वक्त उन्हें हाथ में गोली लगी और उस योद्धा ने अपना हाथ काटकर गंगा मईया को समर्पित कर दिया। इतिहास में स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी ऐसी तमाम कथाएं जुड़ी हैं बिहार के साथ।

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विद्रोह की ज्वाला सभी जगह भड़क चली थी। योद्धाओं और विद्रोहियों के दमन के लिए ही पटना के गुलजार बाग से सैनिक छावनी दानापुर स्थानांतरित की गई थी। दानापुर छावनी का सैनिक विद्रोह भी क्रांति की आग भड़काने वाला साबित हुआ। सैनिक विद्रोह से अंग्रेजी हुकूमत बेचैन हो उठी थी। इसकी लपटें अनेक स्थानों पर फैल गईं। अगस्त क्रांति के दौरान भी ज्वाला खूब भड़की। बिहार के सात जवान सचिवालय पर भारत का झंडा फहराने में अंग्रेजों की गोली खाकर शहीद हो गए। इसकी प्रतिक्रिया ऐसी हुई कि हर युवा अंग्रेजों के खून को खूंखार हो उठा। हर गांव-कस्बे में सुबह से ही वीर बांकुरों के जत्थे जयकारों के साथ निकलने शुरू हो गए।

हर स्तर पर होने लगे प्रयास

महात्मा गांधी के आह्वान पर ‘करो या मरो’ का अभियान चला तो बिहार के गांवों में भी इस अभियान में शामिल होने की होड़ मच गई। तब किसी लाउडस्पीकर की जरूरत नहीं पड़ी, बस जज्बा और उत्साह युवकों को खींचता चला आया। क्रांतिकारी प्रद्युम्न मिश्र को उत्साही नौजवानों पर इसलिए आग बबूला होना पड़ गया कि एक एएसपी को देखते ही वे उसे मारने दौड़ पड़े थे। जैन कालेज के प्रो. सी. बी. त्रिपाठी बताते हैं कि अगस्त क्रांति के साथ चेतना और भड़क उठी। यह भाव लगातार भयानक होता गया। पराकाष्ठा तब हो गई जब आम लोग भी इसमें शामिल हो गए। अंग्रेजी वस्त्रों, सामानों की होली जलाई जाने लगी। अंग्रेजों को पंगु बनाने के लिए जगह-जगह ट्रेन रोको और लूटो अभियान भी चला। 1942 के आंदोलन के दौरान ही युवाओं ने दानापुर के बिहटा में दिल्ली-हावड़ा रूट पर एक मालगाड़ी लूटी तो अंग्रेजी पलटन का सर्च अभियान चला। घर-घर जाकर सैनिकों ने लोगों पर अत्याचार किए। इस दौरान राघोपुर, अमहरा, बिक्रम समेत कई गांवों में सैनिकों ने तबाही मचाई। सैनिक बूटों से महिलाओं की पिटाई करते और युवकों-बूढ़ों पर कोड़े बरसाते। राघोपुर के टीपन मौआर को उनके घर के सामने ही गोली मार दी गई थी। महेश मिश्र, श्याम बाबू, विभू दत्त समेत दर्जनों युवकों को अंग्रेजी पलटन का कहर झेलना पड़ा। क्रांतिकारी युवाओं की गिरफ्तारी रोकने के लिए ग्रामीण पेड़ों को काटकर रास्ता रोक देते। महिलाएं भी अंग्रेजी पलटन के दस्ते पर गोबर और कीचड़ से वार करके खेत-खलिहानों में छिप जाती थीं। इस लड़ाई में अमहरा, कंचनपुर, भरतपुरा आदि गांवों के ग्रामीणों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।

बाजुओं के साथ फड़क उठी कलम

स्वामी सहजानंद सरस्वती के सान्निध्य में भी स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले किसानों में चेतना जगी। हिंदी के लिए बड़ी लड़ाई लड़ने वाले कंचनपुर निवासी बाबू गंगाशरण सिंह, चर्चित साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी, कालीचरण सिंह और उनके साथियों के अलग जगाने से अंग्रेज आग बबूला हो उठे। जन-जागृति के लिए इन सूरमाओं और कलम के सिपाहियों की बैठकें तब वन देवी के जंगलों में खूब होती थीं। राघोपुर के पंडित अनंत राम मिश्र के पूर्वजों द्वारा विंध्याचल से सिद्ध कर लाई गई वन देवी/कनखा माई के मूल प्राकट्य स्थल को 51 बीघे के घनघोर जंगल स्वरूप में छोड़ दिया गया था। यह स्थान अंग्रेजी पलटन से छिपकर जागृति फैलाने और योजनाओं को तैयार करने के लिए सुरक्षित और अनुकूल था। उस दौरान यहां दिन-दिनभर गुप्त बैठकों का दौर चलता रहता। इस बात के गवाह रहे ग्रामीण बताते रहे हैं कि किस तरह वन देवी का क्षेत्र तब क्रांति की योजनाओं के सूत्रधारों का केंद्र बना रहता था। रामवृक्ष बेनीपुरी जी की रचनाओं में भी इन बातों का जिक्र मिलता है। रात में चौपालों पर पलटनों के जुल्म की बातें निकलतीं और भुजाएं फड़काते युवा मरने-मारने की ठान लेते। महिलाएं भी टोलियों के रसद-पानी के इंतजाम में कोताही नहीं करतीं। सभी के मन में बस एक ही उमंग और तरंग थी कि अब देश को स्वतंत्र कराना है। यही मनोभाव धीरे-धीरे सभी में संस्कार का रूप लेता चला गया।

स्वभाव में है वही हठधर्मिता

किसी उद्देश्य को लेकर जिद्दी हुए बिना कोई बात कभी बन नहीं पाती, वैसे ही जिद करके आजाद होने की बात सभी में घर कर गई थी। बिहटा कालेज के प्रोफेसर राजकुमार मौर्य कहते हैं, ‘वही जिद और क्रांतिकारी हठधर्मिता बिहारवासियों, खासकर पटना कमिश्नरी के लोगों के स्वभाव में बस गई है। जानने और गहराई से समझने की ललक पहचान का हिस्सा बन गई, जो विलक्षणता के स्वरूप में ढल सी गई है। स्वाधीनता आंदोलन की ऊर्जा ही लगातार इस क्षेत्र को ऊर्जस्वित करती चली गई। तभी जे.पी. आंदोलन से लेकर अब तक सामाजिक-राजनीतिक बदलाव में बिहार सबसे आक्रामक होकर आगे है और नित नए परिणाम देकर सबको चकित कर देता है।’


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