बिहार में था कर्ण का किला, नालंदा के इस गांव में बिखरी पड़ी हैं दो हजार साल से अधिक पुरानी स्मृतियां
गौरवशाली बिहार बिहार की जमीन हजारों साल का इतिहास दबाए है। नालंदा जिले का कुंडवा पर गांव इसकी मिसाल है। इस गांव में कदम-कदम पर पुरातात्विक साक्ष्य बिखरे पड़े हैं। जहां खोद दो वहां मूर्तियां निकल आती हैं। यहां दो हजार साल से अधिक पुरानी बस्ती के अवशेष मिले हैं।
एकंगर सराय (नालंदा), राजीव प्रसाद सिंह। बिहार का अतीत बेहद पुराना है, जिसकी पुष्टि पुरातत्व और साहित्य दोनों से होती है। नालंदा जिले के एकंगर सराय प्रखंड के गांव एकंगर डीह और कुंडवापर से मिले साक्ष्य भी ऐसी ही कहानी कहते हैं। एकंगर डीह के पुरातात्विक किस्से मशहूर हैं। कुंडवापर गांव में ढिबरा पर एक पुरातात्विक टिल्हा है, जिसपर आज भी शुंग कालीन ईंटों से बने भवनों का प्रमाण ऊपरी सतह पर मौजूद है। वही गांव के उत्तर में एक स्थन है, जहां अब भी बौद्ध विहार के स्तूप के अवशेष मौजूद हैं।
बौद्ध और हिंदू धर्म से जुड़े साक्ष्यों की भरमार
एकंगर डीह गांव में जगदंबा स्थान पर भी बौद्ध और हिंदू धर्म से जुड़े पुरातत्व मिलते रहे हैं। यहां ऐसी कई मूर्तियों की लोग पूजा भी करते हैं। एकंगर डीह गांव में गौरैया बाबा की मूर्ति की पूजा लोग करते हैं। कई लोग बताते हैं कि यह मूलत: भगवान बुद्ध की मूर्ति है। गांव के विभिन्न स्थानों पर सूर्य, गणेश, तारा और भगवान बुद्ध की मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं। इस गांव में आज भी कई सारे मौर्य कालीन रिंग बेल को भी देखा जा सकता है, जिसका उपयोग आज भी किया जा रहा है।
ईसा से 200 पहले आबाद थी यहां बस्ती
भारतीय पुरातत्व विभाग की टीम ने इस पूरे स्थल का सर्वे किया था, जिसमें कहा गया है कि यहां के भवनों में उपयोग होने वाली ईंटों की संरचना शुंग काल की है, जो ईसा पूर्व 200 साल पुरानी है। गांव के सबसे बुजुर्ग लखन मिस्त्री का कहना है कि वर्तमान में भुतही स्कूल का जो भवन है, वह पुरातात्विक भवन के ऊपर ही बना हुआ है। आजादी के पूर्व वह खुद इस स्कूल में पढ़े थे। उनका कहना है कि ढिबरा पर क्षेत्र में पुरातात्विक भवन के ढेरों अवशेष थे, जो पिछले 50 सालों में बर्बाद हुए हैं।
राजा कर्ण की पालक भूमि बताते हैं ग्रामीण
लखन मिस्त्री कहते हैं, पूर्वज हमें बता गए है कि यह भूमि राजा कर्ण की पालक भूमि है। यह गढ़ का भवन तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय से नालन्दा विश्वविद्यालय जाने वाले छात्रों के रहने का मठ था। वह कहते हैं कि मौजूदा कर्बला के नीचे आज भी उस महल और मठ का दरवाजा देखा जा सकता है।
फ्रांसिस बुकानन के सर्वे में भी इस गांव की चर्चा
पिछले 10 वर्षों से 'कुंडवा पर' गांव को पुरानी पहचान दिलाने के लिए प्रयासरत मनीष कुमार भारद्वाज का कहना है कि पटना के डीएम रहे फ्रांसिस बुकानन भी इस जगह का दौरा 28 जनवरी 1811 को किए थे। उन्होंने अपने सर्वे में राजा कर्ण के गढ़ के किले का वर्णन किया है। उन्होंने बौद्ध धर्म से जुड़ी विभिन्न वस्तुओं का वर्णन भी किया है। इसी तरह वर्ष 2012 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शोधकर्ता डॉ गौतम कुमार लामा भी यहां आए थे। उन्होंने मौर्य के साथ ही शुंग कालीन अवशेष पाए थे।
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी किया है जिक्र
एएसआई ने भी वर्ष 2012 की वार्षिक रिपोर्ट के पेज 12 पर कुंडवा पर के टीले को अति महत्वपूर्ण बताया। इसके ऊपर के कुमहैनी तालाब को भी अति महत्वपूर्ण एवं प्राचीन काल का माना जाता है। चीनी यात्री ह्वेनसांग की यात्रा पर लिखी पुस्तक के पेज 95 में बताया गया है कि सम्राट अशोक ने राज्यभिषेक के छठे वर्ष में कलाकारों को रहने के लिए यहां बस्ती बसाई थी। यहां तीन स्तूप, तीन बिहार और तीन तरह के घर मौजूद हैं। बीच में अन्न भंडार गृह था। आज भी घर बनाने के लिए नींव की खुदाई में प्राचीन काल के ईंटो सें बने भवन के अवशेष निकलते हैं।