Bihar Politics: दही-चूड़ा के जरिये बिहार की सियासत, कभी एक साथ नजर आए थे लालू-नीतीश
Bihar Politics सियासत की ऊपरी जमात में भी दुश्मनी को दोस्ती में बदलने का अच्छा मुहूर्त माना जाने वाला दही-चूड़ा का भोज इस बार नहीं होने से कहीं अधिक चर्चा में है। 14 जनवरी 2017 को मकर संक्रांति के मौके पर नीतीश को अपने आवास पर दही-चूड़ा खिलाते लालू प्रसाद।
पटना, अरविंद शर्मा। नजीरें तीन- कहानी एक।
पहला दृश्य : तारीख 12 जनवरी 2018 और स्थान रांची हाईकोर्ट। चारा घोटाले में जेल में बंद लालू प्रसाद की जमानत को अदालत ने खारिज कर दिया तो उन्होंने गुहार लगाई- हुजूर, जमानत नहीं दीजिएगा तो दही-चूड़ा भोज कैसे देंगे। हजारों लोग आते हैं। हम नहीं रहेंगे तो बेइज्जती होगी। जज शिवपाल सिंह का जवाब- चिंता न कीजिए। हमलोग यहीं दही-चूड़ा खाएंगे। लालू प्रसाद की हाजिरजवाबी देखिए। बोले- नहीं हुजूर। मेरे साथ भोज खाने पर लोग आपको भी बदनाम कर देंगे।
दूसरा दृश्य : 14 जनवरी 2017 और स्थान पटना में लालू प्रसाद का आवास। महागठबंधन की सरकार थी। मगर राजद और जदयू में तनातनी थी। माना जा रहा था कि लालू के दही-चूड़ा भोज में नीतीश कुमार आने से परहेज कर सकते हैं। मगर नीतीश आए और राबड़ी देवी ने अच्छी खातिरदारी की। खुद दही-चूड़ा और तिलकुट परोसकर उन्हें खिलाया। लालू ने नीतीश को दही का टीका लगाया और मीडिया को बताया कि भाजपा के जादू-टोने का असर अब नहीं होगा।
तीसरा दृश्य : तारीख 14 जनवरी 2015 और स्थान दिल्ली में रामविलास पासवान का आवास। दही-चूड़ा भोज का आयोजन। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सहयोगी नितिन गडकरी और प्रकाश जावडेकर के साथ पहुंचते हैं और दही-चूड़ा भोज में शिरकत करते हैं। बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी का पासवान के भोज में पहुंचने का संकेत साफ था कि लोकसभा चुनाव में लोजपा के साथ भाजपा का गठबंधन विधानसभा में भी चलता रहेगा।
मकर संक्रांति के आसपास दही-चूड़ा भोज के दौरान बिहार के सियासी गलियारे में इस तरह के उदाहरण हर साल निकल आते हैं। करीब दो हफ्ते तक सियासत के दोनों खेमों में दावतों का दौर चलता है। भीड़ भी खूब होती है। कोई टिकारी (गया) से गुड़ का तिलकुट (तिल का व्यंजन) मंगाता है तो कोई गंगा के दियारा इलाके से मलाई समेत दही। भागलपुर के कतरनी चावल से बनाए गए चूड़ा की चर्चा भी छाई रहती है। हफ्ते भर पहले से ही भोज की तैयारियों की खबरें छपने लगती हैं कि किसके यहां कब भोज है? राजद खेमे के भोज में क्या है और जदयू खेमे में क्या है? भाजपा ने कैसी तैयारी कर रखी है? कांग्रेस की ओर से भोज का खर्चा कौन उठा रहा है? लालू प्रसाद के न्योते को नीतीश कुमार स्वीकार करेंगे या नहीं? सुशील मोदी का क्या स्टैंड होगा? राबड़ी देवी के बुलावे पर भी जाएंगे या नहीं? किसके आवास में कितनी भीड़ होगी जैसे दावे समाचारों में फ्लैश होने लगते हैं।
विभिन्न दलों के कार्यकर्ताओं को भी इस पल का बेसब्री से इंतजार होता है, क्योंकि दावत के दौरान वैसे दरवाजे भी खुल जाते हैं, जो सामान्य दिनों में सिर्फ मंत्री-विधायकों और अति वीआइपी के लिए ही खुलते हैं। दावत के दौरान बड़े नेताओं के आवासों में प्रवेश के लिए आम लोगों को भी इजाजत लेने की जरूरत नहीं होती है। यही वह मौका होता है, जब अदना कार्यकर्ताओं का भी सख्त और अनुशासन के नाम पर रिजर्व रहने वाले अपने आलाकमान से सहज तरीके से मिलना-जुलना हो जाता है।
मगर बिहार में इस बार ऐसे आयोजनों के अतीत की यादों के सहारे ही मकर संक्रांति गुजरने वाली है। कोरोना के खतरे ने राजनीतिक और सामाजिक मिलन की एक अच्छी परंपरा पर ब्रेक लगा दिया है। दोस्तों-दुश्मनों के बीच का फासला मिटाने वाले इस भोज का आयोजन इस बार नहीं होने जा रहा है। इसलिए इसकी यादें हर बार से इस बार ज्यादा आ रही हैं।
आतिथ्य भी अद्भुत : हिंदी में दावत की राजनीति (डिनर डिप्लोमेसी) कोई नया शब्द नहीं है, लेकिन बिहार में यह चूड़ा-दही भोज में तब्दील हो गया है। नए धान का चूड़ा एवं मिट्टी के कड़ाहे में जमाए गए दही वाला शुद्ध और सुपाच्य सामूहिक भोजन का आयोजन, वीआइपी आवासों में हजारों का हुजूम और मेल-मिलाप के लिए दरवाजे के साथ दिल के भी खुल जाने को उत्सव के रूप में देखा जाता है। बड़े नेताओं का आतिथ्य देखने लायक होता है। दावत में आए छोटे-बड़े लोगों से लालू और राबड़ी खुद मिलते रहे हैं। बड़ों की अगवानी के लिए कई बार दरवाजे तक पहुंचने से भी गुरेज नहीं। ऐसा ही नजारा जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह की दावत में भी देखा जाता रहा है। आगंतुकों के स्वागत के लिए वशिष्ठ नारायण पांच-छह घंटे तक दरवाजे पर ही खड़े मिलते हैं। पूछ-पूछ कर खिलाने के भाव का कोई मुकाबला नहीं।
लालू ने डाली थी नींव : बिहार में दही-चूड़ा भोज के पर्याय हैं जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह। किंतु आयोजन की शुरुआत लालू प्रसाद ने 1994-95 में की थी। तब वह मुख्यमंत्री थे। उसी साल जॉर्ज फर्नाडीज के नेतृत्व में नीतीश कुमार जनता दल से अलग हो गए। लालू ने आम लोगों तक पैठ बढ़ाने के लिए दही-चूड़ा भोज का आयोजन किया। इसकी मीडिया में खूब चर्चा हुई और उत्साहित लालू ने परंपरा बना डाली। पटना में संक्रांति पर हर साल दो दिन का आयोजन होने लगा।
एक दिन नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए। अगले दिन झुग्गी-झोपड़ी वालों के लिए। मुख्य अतिथि होते थे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व स्पीकर राधानंदन झा और राजो सिंह। मुख्यमंत्री आवास से सटे झुग्गियों के लोगों को लालू प्रेम से बुलाते और खुद से परोसकर खिलाते। बाद में लालू की परंपरा को पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी अपनाया, परंतु उन्होंने इसे पत्रकारों तक सीमित रखा। जदयू नेता वशिष्ठ नारायण सिंह ने इस परंपरा को दिल्ली तक पहुंचाया। उसके बाद तो रामविलास पासवान समेत कई लोगों ने अपनाया।
[राज्य ब्यूरो प्रमुख, बिहार]