CAB पर बिहार में सियासत: आखिर इतने परेशान क्यों हैं PK... माजरा क्या है?
नागरिकता संशोधन कानून (CAB) को लेकर प्रशांत किशोर (PK) के विरोध पर जदयू (JDU) का रुख सख्त हो गया है। बिल का साथ देकर जदयू ने बिहार में राजग (NDA) की एकजुटता का मजबूत संदेश दिया।
पटना [मनोज झा]। राजनीति में ऐसे कई मौके आते हैं, जब देश और समाज के दीर्घकालिक या बड़े हित को देखते हुए आपको दूसरों के भी किसी वादे के पूरा होने में मददगार बनना पड़ता है। चाहे वह मुद्दा आपके एजेंडे में न भी हो, लेकिन तब आपको सियासी चश्मा उतारकर व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना पड़ता है। समाज के कमजोर तबके को दस फीसद आरक्षण या फिर जम्मू व कश्मीर राज्य से अनुच्छेद 370 की समाप्ति ऐसे ही कुछ हालिया मामले हैं। बेशक इन फैसलों की पहल केंद्र की राजग सरकार ने की, लेकिन सत्तारूढ़ गठबंधन से बाहर के भी कई दलों ने इनका खुलकर समर्थन किया। ताजा मामला नागरिकता संशोधन विधेयक का है। इसे संसद से पारित कराने में राजग से बाहर की भी कई अन्य पार्टियों ने सरकार का साथ दिया।
नेतृत्व का संदेश- विधेयक का समर्थन सोच-समझकर
राजग का घटक होने के नाते नीतीश कुमार की अगुआई वाले जनता दल (यू) और चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी ने भी स्वाभाविक रूप से विधेयक के पक्ष में मतदान किया। हालांकि जदयू के अंदर ही विरोध के कुछ स्वर उभर रहे हैं, लेकिन नेतृत्व की ओर से उन्हें संदेश दिया जा रहा है कि विधेयक का समर्थन कोई आनन-फानन में नहीं, बल्कि सोच-समझकर किया गया है। पार्टी ने इस नजरिये का समर्थन किया है कि नागरिकता संशोधन कानून किसी धर्म या पंथ के खिलाफ नहीं, बल्कि देश में वर्षों से रह रहे विदेशी अल्पसंख्यक शरणार्थियों के आंसू पोंछने का प्रयास भर है।
CAB पर बिहार की सियासत में दो पाले
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बिहार की सियासत में भी दो पाले खिंच गए हैं। एक तरफ सत्तारूढ़ राजग है, जो कानून के समर्थन में है तो दूसरी ओर विपक्ष का महागठबंधन है। राजद और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों का विरोध तो समझ में आता है, लेकिन सत्तारूढ़ जदयू के अंदर के कुछ विरोधी सुर जरूर चौंका रहे हैं। संसद में इस बिल पर बहस के दौरान जदयू नेता आरसीपी सिंह और ललन सिंह ने अपने वक्तव्य में साफ कहा कि इस कानून के जरिये लंबे समय से भारत में शरणार्थी का जीवन जी रहे हजारों लोगों को राहत मिल जाएगी। भला इस बात में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। बावजूद इसके, प्रशांत किशोर (पीके) जैसे कुछ लोग इस मुद्दे पर पार्टी का लगातार विरोध कर रहे हैं। उन्हें पार्टी की ओर से हिदायतें भी दी जा रही हैं, लेकिन इसका कोई असर फिलहाल दिखाई नहीं दे रहा है।
कहीं नये सियासी ठौर-ठिकाने की तलाश तो नहीं?
ऐसे में सवाल है कि क्या विरोध के बहाने कहीं यह नये सियासी ठौर-ठिकाने की तलाश तो नहीं? जाहिर है कि पीके की छवि नेता से ज्यादा चुनावी प्रबंधक की है। वह नारे गढ़ सकते हैं, दलों की आपसी बातचीत में मध्यस्थ बन सकते हैं, लेकिन जहां तक सरजमीन पर वोटरों के दिल में जगह बनाने की बात है तो फिलहाल जदयू में वह कूवत तो नीतीश कुमार के पास ही है। नीतीश ने यह माद्दा चुनाव-दर-चुनाव दिखाया भी है। बिहार में अगले साल विधानसभा चुनाव है और तमाम दल अपनी-अपनी पेशबंदियों में जुट गए हैं। इन पेशबंदियों के बीच पीके की निगाह कहां और निशाना कहां है, यह तो वह ही बता सकते हैं, लेकिन इतना साफ है कि उनके तेवर पार्टी के हित में तो कतई नहीं हैं। नागरिकता बिल को लेकर पीके का विरोध तो बस विपक्ष के उस रवैये का साथ देता दिखाई देता है कि विरोध के लिए विरोध करना है।
पीके सुलझे हुए हैं, इसमें कोई संदेह नहीं
पीके सुलझे हुए हैं, इस बात में कोई संदेह नहीं है। ऐसे में यह मानना मुश्किल है कि वह नागरिकता संशोधन कानून के प्रभाव-दुष्प्रभाव से अनभिज्ञ हैं। पीके या उन जैसे अन्य को यह बताना चाहिए कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से धार्मिक उत्पीडऩ का शिकार होकर कौन-सा मुसलमान जान-आबरू बचाते हुए भारत आया हुआ है। कानून के विरोधियों को इसके चंद उदाहरण भी पेश करना चाहिए। यह सभी को पता है कि बांग्लादेश के लाखों मुस्लिम शरणार्थी सिर्फ और सिर्फ बेहतर जीवन-यापन की तलाश में भारत आए हैं। दूसरी ओर हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी आदि समुदायों के शरणार्थी हैं, जिनका इन तीनों देशों में खुलेआम धार्मिक उत्पीडऩ हुआ है। ये अपने देश से जान और इज्जत बचाकर यहां आए हैं।
विरोध कर रहे लोगों को बताना चाहिए...
पाकिस्तान में गैर-इस्लामी समाज की युवतियों का आए दिन अपहरण, दुष्कर्म, जबरन विवाह या फिर ईशनिंदा में सजा देने जैसी घटनाएं इसका जीता-जागता प्रमाण हैं। कानून का विरोध कर रहे लोगों को ही यह बताना चाहिए इनमें से मदद किन्हें मिलनी चाहिए? क्या उन्हें, जो अपने देश की भ्रष्ट और अपंग व्यवस्था का शिकार होकर रोजी-रोटी की तलाश में यहां आए हैं या फिर उन्हें, जिनका गैर-मुसलमान होना ही अकेला गुनाह है। क्या देश में मौजूद लाखों बांग्लादेशी शरणार्थियों को सिर्फ इस बात के लिए भारत की नागरिकता दे देनी चाहिए, क्योंकि वे एक मजबूत वोट बैंक बन सकते हैं। क्या देश के संसाधनों पर उनका भी हमारी तरह बराबर का हक है?
तमाम सवालों से बचना चाहते हैं विधेयक के विरोधी
जाहिर है कि विरोध करने वाले इन तमाम सवालों से बचना चाहते हैं। दरअसल, उनके पास जवाब है भी नहीं। चूंकि इस मुद्दे से हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई जैसे शब्द जुड़े हैं, इसलिए इसे सांप्रदायिक बताने में आसानी हो रही है। जबकि यह पूरी तरह से मानवीय और समाजिक मुद्दा है। अभी इसका विरोध राजनीति के लिहाज से तो यह कइयों के लिए मुफीद हो सकता है, लेकिन जहां तक देश और समाज का सवाल है तो कालांतर में यह नासूर भी बन सकता है। जहां तक जदयू का प्रश्न है तो उसने इस कानून का समर्थन कर अपनी सियासी दूरदर्शिता और परिपक्वता का ही संदेश दिया है। साथ ही यह संदेश भी है कि बिहार में राजग की एकता फिलहाल चट्टान की तरह मजबूत है और आगामी चुनावी में विपक्ष को इसी एकजुटता से लोहा लेना पड़ेगा।
(लेखक दैनिक जागरण बिहार के स्थानीय संपादक हैं)