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नीतीश और तेजस्वी ही नहीं, बार-बार दोस्त बदलने वाले कई नेताओं की दिशा-दशा तय करेगा परिणाम

बिहार में अबकी बार किसकी सरकार होगी यह तो एक दिन बाद 10 नवंबर को तय हो जाएगा। मगर इनके साथ ही छह साल के भीतर सभी गठबंधनों की सैर कर लेने वाले राज्य के तीन नेताओं की दिशा-दशा चुनाव का परिणाम तय करेगा। जानिए पूरा मामला ।

By Sumita JaiswalEdited By: Published: Sun, 08 Nov 2020 05:56 PM (IST)Updated: Sun, 08 Nov 2020 05:56 PM (IST)
नीतीश और तेजस्वी ही नहीं, बार-बार दोस्त बदलने वाले कई नेताओं की दिशा-दशा तय करेगा परिणाम
तेजस्‍वी यादव, जीतन राम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और नीतीश कुमार की तस्‍वीर ।

पटना, अरुण अशेष । सरकार बनाने की दौड़ में शामिल दोनों बड़े गठबंधन का सबकुछ दांव पर लगा हुआ है। लेकिन, छह साल के भीतर सभी गठबंधनों की सैर कर लेने वाले राज्य के तीन नेताओं की दिशा-दशा चुनाव का परिणाम तय करेगा।  ये हैं-हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा के अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, रालोसपा अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा और विकासशील इंसान पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी। इन तीनों ने दोस्त बनाने का रिकार्ड बनाया है। विधानसभा चुनाव परिणाम अगर उम्मीदों के विपरीत चले गए तो तीनों को अगली राजनीति के लिए नए सिरे से सोचना होगा।

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चार चुनाव, चार स्टैंड

हिन्दुस्तानी अवामी मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी 2014 के लोकसभा चुनाव में गया से जदयू के उम्मीदवार थे। उन्हें नौ प्रतिशत से कम वोट मिला। 2015 में एनडीए में शामिल हो गए। दो क्षेत्रों से चुनाव लड़े। ईमामगंज में जीते। मखदुमपुर में हार हुई। उन्हें उम्मीद थी कि एनडीए केंद्र में कोई जिम्मेवारी देगा। विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद उनकी पूछ घटती चली गई। राजद को नया दोस्त बनाया। दोस्ती का फायदा हुआ। उनके पुत्र संतोष सुमन विधान परिषद के सदस्य बन गए। 2019 के लोकसभा चुनाव तक राजद की अगुआई वाले महागठबंधन के साथ रहे। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पाला बदल कर एनडीए में चले गए। उनकी पार्टी आठ सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ रही है। खुद उम्मीदवार हैं। समधिन और दामाद भी चुनाव लड़ रहे हैं। उनका अगला कदम चुनाव परिणाम से तय होगा। उनके पास अधिक विकल्प नहीं बचा है।

 मांझी के हमराही सहनी

विकासशील इंसान पार्टी के अध्यक्ष मुकेश सहनी 2014 से चुनावी राजनीति में सक्रिय हुए। उस समय उन्होंने पार्टी नहीं बनाई थी। सन ऑफ मल्लाह के नाम से संगठन चलाते थे। उस लोकसभा चुनाव में उन्होंने एनडीए के लिए प्रचार किया। केंद्र में सरकार गठन के बाद भी कुछ खास हासिल न होने से उनका एनडीए से मोहभंग हो गया। कुछ दिनों तक स्वतंत्र राजनीति करने के बाद वे राजद के करीब हुए। 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी तीन सीटों पर लड़ी। खुद भी हारे। सबकुछ ठीक चल रहा था। सीटों के बंटवारा की घोषणा के लिए आयोजित महागठबंधन की प्रेस कांफ्रेंस से वह कहते हुए निकले कि पीठ में छुरा घोंप दिया गया। दूसरी बार एनडीए की शरण में हैं। 11 सीटों पर उनकी पार्टी चुनाव लड़ रही है। उनका अगला कदम चुनाव परिणाम पर निर्भर है।

उपेंद्र भी पीछे नहीं

विधानसभा में विरोधी दल के नेता और केंद्र में मंत्री रहे उपेंद्र कुशवाहा ने विधानसभा चुनाव में अपने लिए अलग रास्ता चुना। वे 2014 के लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनाव में एनडीए के पार्टनर थे। यहां उनकी दोस्ती 2019 तक चली। सीटों के मसले पर तकरार के बाद वे एनडीए से अलग होकर महागठबंधन का हिस्सा बने। लोकसभा के पिछले चुनाव में उनके हिस्से तीन पांच सीटें आईं। दो पर खुद लड़े। तीन पर उम्मीदवारों को लड़ाया। संयोग ऐसा कि रालोसपा के सभी पांच उम्मीदवार चुनाव हार गए। विधानसभा चुनाव में उनकी दोस्ती बसपा और एआइएमआइएम से हुई। साथ में कुछ और दल हैं। चुनाव परिणाम उनकी अगली भूमिका को तय करेगा।


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