कई राजनीतिक पड़ाव, ठहराव और बदलाव से गुजरा पटना, जानें शहर का सियासी इतिहास
आजादी से अब तक बिहार की राजधानी पटना का राजनीतिक नाम नक्शा व नारा कई बार बदला है। इस दौरान राजधानी ने कई अहम बदलाव देखे। जानें कैसे बदला शहर।
श्रवण कुमार, पटना। आजादी से अब तक बिहार की राजधानी पटना का राजनीतिक नाम, नक्शा व नारा कई बार बदला है। वर्ष 1952 में हुए चुनाव में पटना का राजनीतिक नाम पाटलिपुत्र हुआ करता था। कालक्रम में पाटलिपुत्र का नाम बदला और पटना लोकसभा क्षेत्र अस्तित्व में आया। 2008 में हुए परिसीमन के बाद पटना साहिब और पाटलिपुत्र दो संसदीय क्षेत्र अस्तित्व में आ गए। परिसीमन के बाद नाम ही नहीं पटना के संसदीय क्षेत्रों के नक्शे भी बदल गए। नाम और नक्शे के साथ बदलते नारों ने भी पटना के राजनीतिक मिजाज को बदला है।
उन्नीस बार संसदीय चुनाव का हिस्सा बना पटना
लोकतंत्र के सत्तर वर्षों के सफर में पटना की राजनीति ने कई पड़ाव और ठहराव देखे हैं। अब तक पटना ने उन्नीस बार संसदीय चुनाव के लिए वोट किया है और नौ प्रतिनिधियों को सांसद बनाकर लोकसभा तक पहुंचाया है। इन उन्नीस चुनावों में से तीन बार पटना के चुनाव कांउटरमेंड (रद) भी हुए हैं। इन चुनावों ने पटना के चौक-चौराहों से लेकर गली-मोहल्लों में नारों की शोर सुनी है। बदलते नारे और प्रचार के तरीकों को देखा है। कभी दीवारों पर लिखे नारे को पढ़ा है,तो अब सोशल मीडिया के प्रचार तंत्र से चौंधिया रहा है।
जब बैलगाड़ी पर होता था चुनाव प्रचार
सत्ता पाने और बचाने के राजनीतिक वार-पलटवार में शब्दों के हथियार यहां की रणभूमि में भी खूब चले हैं। कभी नारों के रूप में तो कभी गीतों और गानों के जरिए। जिले में गांवों की गलियों से लेकर शहर व बाजार के चौक-चौराहों तक। आजादी बाद का पहला चुनाव हो या वर्तमान में हो रहा लोकसभा का चुनाव। नारों की गूंज के बिना चुनाव आधा-अधूरा रहता है। भले ही स्वरूप बदल गए हैं, पर सत्ता की होड़ में शब्दों की सत्ता आज भी कायम है। एक जमाना था, जब प्रत्याशी बैलगाडिय़ों पर चढ़कर प्रचार किया करते थे। बैलों के गले में बंधी घंटी जब टन-टन की आवाज करती गांवों में सुनाई देती, तब मतदाताओं और समर्थकों से पहले बच्चों की झुंड ही बैलगाड़ी के पास आकर जिंदाबाद के नारे लगाने लगती। प्रत्याशी कोई भी हो बच्चों का जिंदाबाद कॉमन हुआ करता था।
पटना से विजयी रहे सांसद
सांसद चुनाव वर्ष
01. सारंगधर सिन्हा : 1952, 1957
02 : रामदुलारी सिन्हा : 1962
03 : रामावतार शास्त्री : 1967, 1971, 1980
04 : महामाया प्रसाद सिन्हा : 1977
05 : डा. सीपी ठाकुर : 1984, 1998, 1999,
06 : शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव : 1989
07 : रामकृपाल यादव : 1991, 1996, 2004, 2014
08: रंजन यादव : 2009
09 : शत्रुघ्न सिन्हा : 2009, 2014
दलों के चिन्ह के आधार पर नारे
1952 में हुए लोकसभा के पहले चुनाव में कांग्रेस का चुनाव चिह्न जोड़ा बैल था। तब कांग्रेस का मुख्य नारा हुआ करता था- वही हमारा वोट का बक्सा, जिसमें जोड़ा बैल का नक्शा। इस नारे पर निशाना साधते हुए प्रतिद्वंदी जनसंघ ने नारा दिया था -जोड़ा बैल में मेल नहीं है, देश चलाना खेल नहीं है। कांग्रेस ने भी जनसंघ के चुनाव चिह्न जलता हुआ दीया पर वार करते हुए नारा गढ़ा था- दीया में तेल नहीं है, चुनाव जीतना खेल नहीं है। बाद के चुनावों में पार्टियों के नेता और निशान बदलने के साथ ही नारे भी बदलते रहे। आज भी बुजुर्गों को कई नारे याद हैं। लाल किले पर लाल निशान, मांग रहा है ङ्क्षहदुस्तान, चौदह रुपया करुआ तेल, देखो रे ... का खेल, जैसे नारों की शोर पुराने जमाने में चुनाव के दौरान गूंजते रहती थी। ग्रामीण इलाका हो या शहरी। तब प्रचार का तरीका कमोबेश एक ही हुआ करता था। भोंपु या लाउडस्पीकर से प्रत्याशी के पक्ष में नारे लगाए जाते थे और दीवारों पर लिखे जाते थे।
ब नर-पोस्टर से ज्यादा दीवारों पर नारे
आजादी के बाद देश की जो स्थिति थी उस वक्त बैनर पोस्टर छपवाना आसान नहीं था। न आज के जितने मुद्रणालय थे, न ही बैनर का चलन। चुनाव में प्रचार करने का सबसे बड़ा साधन दीवार लेखन हुआ करता था। पटना में भी तब नेताओं द्वारा दीवारों पर ही नारे लिखवाए जाते थे। उस समय दीवारों पर नारे लिखने के लिए आयोग से अनुमति की जरूरत भी नहीं पड़ती थी। लगभग हर सार्वजनिक परिसरों की दीवारों को नारों से रंग दिया जाता था। अधिकतर पोस्टर भी अच्छी हेंड राइटिंग लिखने वालों या चित्रकारों-कलाकारों से सादे कागज पर बनवाकर चिपकाए जाते थे।
1980 के बाद पोस्टरों का बढ़ा चलन
पोस्टरों और बैनरों का चलन 1980 के दशक के बाद बढऩे लगा। एक समय ऐसा आया जब पटना के हर घर व दीवार पर प्रत्याशियों के पोस्टर और चौक-चौराहों पर बैनर, झंडे और होर्डिंग लगाए जाने लगे। डिजिटल पोस्टरों और फ्लैक्स बैनर का भी एक जमाना आया।
अब सोशल मीडिया सबसे सशक्त माध्यम
ब नर-पोस्टर लगाने पर आयोग की सख्ती ने प्रचार के तरीकों में भी बदलाव किया है। असर पटना में चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों पर भी पड़ा है। वर्तमान में चुनाव मैदान में कूदे लगभग सभी प्रत्याशियों ने फेसबुक को अपना प्रमुख प्रचार प्लेटफॉर्म बना लिया है और व्हाटस एप को संवाद का जरिया। कार्यकर्ताओं को कार्यक्रमों की जानकारी देने से लेकर हर तरह का संवाद और मीडिया तक सूचनाएं पहुंचाने के लिए व्हाटस एप सशक्त माध्यम बन रहा है। दूसरी ओर फेसबुक पेज के जरिए प्रत्याशी समूह तक पहुंच रहे हैं। कई प्रत्याशियों ने इसके लिए बजाप्ता बड़ी पीआर कंपनियों को भी हायर किया है।
नारों की जगह गीत-गानों ने ले ली
प्रचार में नारों की जगह धीरे-धीरे गीत-गानों ने ले ली है। पहले तो प्रत्याशियों के पक्ष में गाने रिकॉर्ड कर सुबह से देर रात तक बजाए जाते थे। चुनाव कार्यालयों से लेकर चौक-चौराहों तक लाउडस्पीकर से गानों का कानफाड़ू शोर सुनाई पड़ता था। अब सोशल मीडिया और टीवी विज्ञापनों पर सुनाई देते हैं गीत, गाने व जिंगल। गीत, गाने व जिंगल बनाने के लिए प्रत्याशी और पार्टियां प्रोफेशनल की भी मदद ले रही हैं।
पहले चुनाव में पाटलिपुत्र था संसदीय नाम
आजादी के बाद 1952 में हुए पहले संसदीय चुनाव में पटना का राजनीतिक नाम पाटलिपुत्र ही था। तब कांग्रेस के सारंगधर सिन्हा यहां से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। हालांकि बाद में यह संसदीय क्षेत्र पटना के नाम से जाना जाने लगा। 2008 में हुए परिसीमन ने पाटलिपुत्र को फिर से अस्तित्व में लाया। पाटलिपुत्र और पटना साहिब संसदीय क्षेत्र बने। दिलचस्प यह भी है कि जो पाटलिपुत्र कभी बिहार का प्रथम निर्वाचन क्षेत्र हुआ करता था, अब 31 वें नंबर पर चला गया। परिसीमन के बाद पटना का राजनीतिक नक्शा भी बदल गया है।
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