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Lockdown Bihar: मौका भी आएगा मुसीबत के बाद, अर्थतंत्र मजबूत बना सकते आप्रवासी कामगार

Lockdown Bihar कोरोना लॉकडाउन के कारण बिहार के आप्रवासी कामगार बड़ी संख्‍या में बेरोजगार हुए हैं। बाहर से लौटे ये लोग बिहार की अर्थव्‍यवस्‍था मजबूत कर सकते हैं।

By Amit AlokEdited By: Published: Fri, 01 May 2020 09:15 AM (IST)Updated: Sat, 02 May 2020 10:58 PM (IST)
Lockdown Bihar: मौका भी आएगा मुसीबत के बाद, अर्थतंत्र मजबूत बना सकते आप्रवासी कामगार
Lockdown Bihar: मौका भी आएगा मुसीबत के बाद, अर्थतंत्र मजबूत बना सकते आप्रवासी कामगार

पटना, अरविंद शर्मा। कोरोना ने बिहार के गांवों में प्रचलित उस लोकोक्ति को करारा झटका दिया है, जिसमें कहा जाता है कि लोटा और बेटा बाहर ही चमकता है। कोरोना ने जो घाव दिया, जो बेरोजगारी दी, उसके बाद दूसरे प्रदेशों में लाखों की संख्या में फंसे लोगों के माता-पिता अब बेटों को शायद ही बाहर जाने की अनुमति दें। मुश्किल दौर में अगर सबसे ज्यादा किसी प्रदेश के लोग बेरोजगार हुए हैं तो वह है बिहार। लाखों लोग घर लौट चुके हैं। लाखों आने वाले हैं। यह चुनौतियां बढ़ाने वाला है, किंतु सरकारी और कारोबारी तंत्र अगर सुनियोजित तरीके से आगे बढ़ें तो भविष्य में यही स्थिति वरदान में बदल सकती है। अतीत गवाह है कि किस्मत कभी-कभी ऐसे ही झटकों से बदला करती है।

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बिहार में श्रम है। उर्वर भूमि है। जल है। संसाधन है। सुशासन और संकल्प शक्ति भी है। पंजाब-हरियाणा जैसे छोटे राज्यों की तरक्की में बिहार की श्रमशक्ति का ही योगदान है। दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, बेंगलुरू जैसे शहर अगर कारोबारी हब बने हैं तो उसके पीछे हमारा ही दिमाग है।

संकट के बाद हासे सकती नए बिहार की शुरुआत

कुछ दिन का संकट है। जब टल जाएगा तो एक नए बिहार की शुरुआत हो सकती है, क्योंकि अपने संसाधनों के बूते हम घर में ही उद्योग-धंधे को गति दे सकते हैं। मक्का और मखाना उत्पादन में हम सर्वश्रेष्ठ हैं। गेहूं-चावल के उत्पादन में भी बिहार ने कई दफा अपनी श्रेष्ठता साबित की है। सब्जी उत्पादन में बिहार का स्थान देश में तीसरा और फल में चौथा है। इतने सारे संसाधन हैं तो बिहार फूड प्रोसेसिंग उद्योग का सरताज बन सकता है।

बदले हालात ने दिखाए भविष्‍य के सपने

आठवें-नौवें दशक में जातीय संघर्ष एवं नक्सली आंदोलनों ने बिहार का बहुत नुकसान किया है। इसके चलते बड़ी संख्या में पलायन हुआ। गिरमिटिया मजदूरों के जबरन विस्थापन के बाद यह पहला मौका था, जब लाखों लोग घर-परिवार से दूर हो गए। यह वह दौर था, जब बिहार की खेती श्रमशक्ति के अभाव में चौपट होती गई और दूसरे प्रदेश फलते-फूलते गए। किंतु बदले हालात ने भविष्य का सपना दिखाया है।

गांव तय करेंगे शहर की तकदीर

प्रकृति ने गंगा की गोद में डालकर बिहार को पहले से ही उपकृत कर रखा है। 67 लाख हेक्टेयर में खेती होती है। 33 लाख हेक्टेयर में धान, 22 लाख हेक्टेयर में गेहूं, 7.20 लाख हेक्टेयर में मक्का एवं पांच लाख हेक्टेयर में दलहन का इलाका है। गन्ना, तेलहन, जूट, पान एवं मसाले की खेती होती है। हमारी ही उपज को प्रसंस्कृत कर दूसरे राज्य हमें ही बेचकर मुनाफा कमाते हैं। अब फिर उम्मीद जगी है। गांवों की तस्वीर बदलेगी तो महानगरों की तकदीर संभल सकती है।

अवसर में बदलेंगी चुनौतियां

जर्मनी में बिहार फ्रेटरनिटी के संयोजक प्रकाश शर्मा ताजा चुनौती को अवसर के रूप में देखते हैं। प्रकाश के मुताबिक बिहार के पास अर्थतंत्र खड़ा करने का समय है। पलायन रुकेगा तो घर में ही काम की तलाश होगी। सरकार पर भी रोजगार के अवसर बढ़ाने का दबाव होगा। सरकार चाहे तो अलग-अलग आॢथक जोन बनाकर रोजगार सृजन करे। बड़े-बड़े कारखाने लगाना संभव नहीं। छोटी-छोटी औद्योगिक इकाइयों पर काम करना होगा। बिहार के पास खोने को कुछ नहीं है, लेकिन पाने का यही मौका है।


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