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गणित के कठिन सवालों को चुटकियों में सुलझाने वाले वशिष्ठ बाबू का जीवन था एेसा कि...

आइंस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती देने वाले देश के महान गणितज्ञ ने दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन गणित के कठिन-से-कठिन सवालों को सुलझाने वाले इस गणितज्ञ का जीवन दुख भरा था..

By Kajal KumariEdited By: Published: Fri, 15 Nov 2019 10:11 AM (IST)Updated: Fri, 15 Nov 2019 04:34 PM (IST)
गणित के कठिन सवालों को चुटकियों में सुलझाने वाले वशिष्ठ बाबू का जीवन था एेसा कि...
गणित के कठिन सवालों को चुटकियों में सुलझाने वाले वशिष्ठ बाबू का जीवन था एेसा कि...

जागरण टीम [जयशंकर बिहारी,श्रवण कुमार,मृत्युंजय कुमार सिन्हा]। महान गणितज्ञ डॉक्टर वशिष्ठ नारायण सिंह में देश प्रेम की भावना इस कदर भरी थी कि अमेरिका के प्रोफेसर डॉक्टर केली की बेटी के साथ विवाह का प्रस्ताव उन्होंने ठुकरा दिया था। 1971 में वे अमेरिका से अपने गांव लौट आए। आठ जुलाई 1973 में शादी वंदना रानी सिंह से हुई।

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बचपन से ही मेधावी छात्र रहे डॉक्टर वशिष्ठ को 1958 में नेतरहाट की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ था। वर्ष 1963 में हायर सेकेंड्री की परीक्षा में भी सर्वोच्च स्थान मिला। 1964 में इनके लिए पटना विश्वविद्यालय  के कानून में संशोधन तक करना पड़ा था। सीधे ऊपर की क्लास में दाखिला हुआ और बीएसएसी ऑनर्स में सर्वोच्च स्थान मिला।

आठ सितंबर 1965 को बार्कले विश्वविद्यालय में आमंत्रण दाखिला हुआ। 1966 में नासा और 1967 में कोलंबिया इंस्टीट्यूट ऑफ मैथमेटिक्स का निदेशक नियुक्त किया गया। बार्कले यूनिवर्सिटी ने उन्हें जीनियस में जीनियस कहा था। 

लाल बहादुर के लाल ने किया कमाल

महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह  गांव-गंवई के गरीब परिवार के बेटे थे। उनके पिता लाल बहादुर सिंह सिपाही थे। पुत्र को बहुत अच्छी शिक्षा दिलाने की स्थिति उनकी नहीं थी। अपनी प्रतिभा के बल पर परीक्षाओं में वशिष्ठ नारायण सिंह ने सर्वोच्च स्थान हासिल किया।

परीक्षा की कॉपी जांचने वालों ने तब कहा कि इन्हें कोई पढ़ा सके ऐसा यहां कोई शिक्षक नहीं। हर परीक्षा में सर्वोच्च स्थान पाया। वशिष्ठ नारायण सिंह की बुद्धिमता के डंके की गूंज चारों तरफ गूंजने लगी। लोग कहने लगे कि सिपाही लाल बहादुर के लाल ने किया कमाल। बाद में विदेशों से उच्च शिक्षा के लिए वशिष्ठ नारायण सिंह को आमंत्रण मिलने लगा और वे अमेरिका चले गए जहां उन्होंने गणित के क्षेत्र में कई कीर्तिमान स्थापित किए।

'द पीस ऑफ स्पेस थ्योरी' से आइंस्टीन को दी थी चुनौती

गणना में कंप्यूटर को मात देने वाले राज्य के सपूत वशिष्ठ नारायण सिंह ने 1969 में द पीस ऑफ स्पेस थ्योरी से विश्व के गणितज्ञों को चौंका दिया था। अदभुत गणना शक्ति के लिए इन्हें बर्कले विश्वविद्यालय में 'जीनियसों का जीनियस' कहा जाता था।

उन्होंने साइकिल वेक्टर स्पेस थ्योरी से आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को चुनौती दी थी। अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में इनकी थ्योरी पर कार्य प्रारंभ हुए ही थे कि 1971 में भारत वापस आ गए। आइआइटी दिल्ली के पूर्व फैकल्टी प्रोफेसर आरके शर्मा का कहना है कि अमेरिका से लौटने के बाद वशिष्ठ नारायण सिंह थ्योरी पर ज्यादा काम नहीं कर सके।

उनके द्वारा किए गए रिसर्च पर नए सिरे से काम कराया जा सकता है। बर्कले यूनिवर्सिटी में उनके शोध कार्य का डिटेल सुरक्षित होगा। वहां से भी मदद ली जा सकती है। 

पीयू के पास नहीं है थ्योरी की कॉपी

पटना साइंस कॉलेज के प्राचार्य प्रोफेसर केसी सिन्हा ने बताया कि वशिष्ठ बाबू की थ्योरी पर ज्यादा काम नहीं हो सका है। तीन दशक पहले उनकी थ्योरी और शोध पत्र की पड़ताल की गई थी लेकिन, सफलता हाथ नहीं लगी। पटना विश्वविद्यालय में उनके शोध पत्र पर नए सिरे से कार्य प्रारंभ करने की जरूरत है। यह उन्हें विश्वविद्यालय द्वारा दी गई सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और गणित के प्रख्यात शिक्षक प्रोफेसर केके झा ने बताया कि उनकी थ्योरी की चर्चा कैंपस में हर छात्र के जुबान पर होती थी। लेकिन, उस पर किसी ने शोध किया है। इसकी जानकारी उन्हें नहीं है। प्रो. केके झा 1962-63 में पटना साइंस कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के रूप में जुड़ चुके थे। 

बिहार मैथमेटिकल सोसाइटी के संयोजक और संयुक्त सचिव डॉक्टर विजय कुमार का कहना है कि वशिष्ठ बाबू आर्यभट्ट और रामानुजम के विस्तार थे। असमय बीमारी ने विश्व को कई सिद्धांतों से वंचित कर दिया।  

जिंदगी के उलझे गणित में आखिर हासिल हुई मौत

गणित के सवालों को चुटकी में सुलझाने वाले वशिष्ठ नारायण सिंह की जिंदगी खुद बेतरतीब धागों की तरह उलझी रही। वे सिजोफ्रेनिया बीमारी से ग्रसित होने के बावजूद गणित के सूत्रों में ही डूबे रहते। बीएन कॉलेज के पास कुल्हडिय़ा कांप्लेक्स स्थित छोटे भाई अयोध्या प्रसाद के फ्लैट की दीवारों पर इसके निशान अब भी हैं।

अब वे दीवारें कभी वशिष्ठ बाबू के हाथों का स्पर्श नहीं कर पाएंगी। अब तक वशिष्ठ बाबू की सेवा कर रहे छोटे भाई अयोध्या प्रसाद और भतीजे मुकेश व राकेश की सूनी पड़ गई निगाहें अब महान गणितज्ञ का साक्षात दीदार दुबारा नहीं कर सकेंगी। 

वशिष्ठ बाबू का जन्म भोजपुर के बसंतपुर गांव में 2 अप्रैल 1946 को हुआ था। 1958 में नेतरहाट की परीक्षा में इन्हें सर्वोच्च स्थान प्राप्त होने का गौरव प्राप्त हुआ। 1963 में हायर सेकेंड्री की परीक्षा में भी इन्होंने सर्वोच्च स्थान पाया। 1964 में पटना विश्वविद्यालय को इनके लिए कायदों को बदलना पड़ा।

इन्हें सीधे ऊपर के क्लास में दाखिला मिला।  बीएससी आनर्स में भी इन्हें सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ। 8 सितंबर 1965 को बर्कले विश्वविद्यालय में इन्हें बुलाकर दाखिला मिला। 1969 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी में इन्होंने चक्रीय सदिश समष्टि सिद्धांत पर शोध कर अपना लोहा मनवाया था। 

पत्नी से बिगड़े रिश्ते तो हुए बीमार

1971 ई. में वशिष्ठ बाबू भारत वापस लौट आए। 1972 से 73 तक आइआइटी कानपुर में प्राध्यापक, टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च (ट्रांबे) और स्टैटिक्स इंस्टीट्यूट में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे। आठ जुलाई 1973 को इनकी शादी हो गई। कहते हैं कि शादी के बाद पत्नी से इनके रिश्ते बेहतर नहीं रहे।

जनवरी 1974 से ये मानसिक रूप से बीमार रहने लगे।  तब रांची के मानसिक आरोग्यशाला में इन्हें भर्ती किया गया। 1978 में सरकारी इलाज शुरू हुआ पर जून 1980 में सरकार द्वारा इलाज का पैसा बंद कर दिया गया। 

खंडवा में गुम हुए, डोरीगंज में मिले

वशिष्ठ बाबू नौ अगस्त 1989 को गढ़वारा (खंडवा) स्टेशन से गुम हो गए। सात फरवरी 1993 को अपने ससुराल के पास डोरीगंज (छपरा) में एक झोपड़ीनुमा होटल के बाहर फेंके गए जूठन में खाना तलाशते मिले। जब यह खबर मीडिया में आई तब तत्कालीन लालू सरकार की पहल पर फिर से इनका इलाज नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंस बेंगलुरू में इनका इलाज शुरू किया गया था।

2002 तक वहां इनका इलाज चला था, पर कोई खास सुधार नहीं होने पर परिजन इन्हें वापस ले आए थे। 2013 के बाद वे लगातार पटना में कुल्हडिय़ा कॉम्लेक्स स्थित अपार्टमेंट में रहने लगे। यहां वे पीएमसीएच के डॉक्टर की देख-रेख में थे। आखिकार 14 नवंबर 2019 को इन्होंने आखिरी सांसें लीं।

प्राचार्य ने सस्पेंड करने के लिए बुलाया था, प्रतिभा देख दे दिया प्रमोशन

अपने छात्र गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह के लिए पटना विश्वविद्यालय ने अपने नियमों में बदलाव कर दिया था। पीयू ने उन्हें तीन साल के बजाय एक साल में ही बीएससी की डिग्री दे दी थी।

पटना साइंस कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य और नाथ-रमण थ्योरी के जनक डॉ. नागेंद्र नाथ की पहल पर कुलपति डॉक्टर जार्ज जैकब ने चंद मिनटों में ही उन्हें फस्र्ट ईयर से फाइनल ईयर में प्रमोट करने का नोटिफिकेशन जारी करा दिया था। 1963 में उनके सहपाठी फस्र्ट ईयर तो वशिष्ठ बाबू फाइनल ईयर की परीक्षा दे रहे थे। 

पटना साइंस कॉलेज में वशिष्ठ बाबू से एक साल जूनियर रहे प्रो. रामतवक्या सिंह के अनुसार 1963 की बात है। बीएससी फस्र्ट ईयर में गणित की कक्षा प्रो. बीकन भगत ले रहे थे। एक सवाल को प्रो. भगत ने गलत बता दिया, जिसे वशिष्ठ बाबू ने कई विधि से हल कर दिया।

कक्षा खत्म होने पर प्रोफेसर भगत ने प्राचार्य प्रोफेसर नागेंद्र नाथ से रोल नंबर-23 के द्वारा दुव्र्यवहार की शिकायत की। इस पर प्राचार्य ने तत्काल वशिष्ठ नारायण सिंह को चैंबर में बुलाया। उस दौर में प्राचार्य के चैंबर में जाने का मतलब होता था, सीधा सस्पेंड होना।

प्राचार्य की डांट पर वशिष्ठ बाबू रोने लगे थे। इस पर प्रोफेसर नाथ ने उन्हें पूरी घटना बताने को कहा। प्राचार्य ने गणित के कई सवाल उनसे पूछे। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर वशिष्ठ बाबू को लेकर तत्कालीन कुलपति के पास पहुंचे। जिसके बाद वशिष्ठ बाबू को एक साल में ही ऑनर्स की डिग्री प्रदान करने के लिए नियम में बदलाव कर दिया गया।

पटना साइंस कॉलेज के पूर्व प्राचार्य प्रोफेसर राधाकांत प्रसाद ने बताया कि प्रो. नागेंद्र नाथ के मित्र अमेरिका के प्रख्यात वैज्ञानिक प्रोफेसर केली थे। उनकी अनुशंसा पर ही प्रोफेसर केली वशिष्ठ बाबू से मिलने पटना पहुंचे थे। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर प्रो. केली ने बर्कले यूनिवर्सिटी, अमेरिका में स्कॉलरशिप की व्यवस्था कराई थी। उनके मार्गदर्शन में ही वशिष्ठ बाबू ने अमेरिका में शोध कार्य किया था। 


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