बेगूसराय तय करेगा बिहार में वामपंथ का भविष्य, कन्हैया हारे तो होगी लालू की भी चर्चा
लोकसभा चुनाव में बिहार में वामपंथ का क्या भविष्य होगा ये बेगूसराय की सीट पर मिली हार-जीत से ही तय होगा। कन्हैया कुमार हारते हैं तो गिरिराज सिंह के साथ लालू की भी चर्चा होगी।
पटना [अरविंद शर्मा]। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि बिहार के बेगूसराय में इस बार आम चुनाव नहीं, बल्कि आम लड़ाई होने जा रही है। दो विचारधाराओं की राजनीति आमने-सामने है। एक के सामने फिर से खड़ा होने की चुनौती है तो दूसरे के सामने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का मौका है।
भाकपा के उम्मीदवार कन्हैया कुमार और भाजपा के फायर ब्रांड नेता गिरिराज सिंह की प्रतिष्ठा दांव पर है। दोनों में कड़ा मुकाबला है। चौथे चरण में 29 अप्रैल को 19 लाख 58 हजार मतदाता जब अपने मताधिकार का प्रयोग करने जाएंगे तो उनके सामने तीसरा विकल्प भी होगा।
राजद ने तनवीर हसन को दोबारा उतारकर कन्हैया की सियासी रफ्तार पर ब्रेक लगाने की कोशिश की है, ताकि लालू प्रसाद के उत्तराधिकारी का भविष्य महफूज रह सके। वामपंथी विचारों में उबाल के चलते कभी मिनी लेनिनग्राद नाम से विख्यात बेगूसराय के नतीजे का एक असर और हो सकता है।
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कन्हैया हार गए तो गिरिराज के साथ लालू की कामयाबी की भी चर्चा होगी। जीत गए तो राजद के नए नेतृत्व के कौशल की आगे भी परीक्षा होती रहेगी। तीनों अपने-अपने दल के सपने लेकर खुद के अस्तित्व की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। कन्हैया की जीत बिहार में वामपंथ को पुनर्जीवन दे सकती है। हार गए तो गिरिराज की हनक बढ़ने से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
बेगूसराय में कुल 10 प्रत्याशी हैं, लेकिन मुख्य मुकाबले में तीन ही हैं। तनवीर की तकदीर को भी कम करके नहीं आंका जा सकता है, क्योंकि पिछली बार उन्होंने ही भाजपा के भोला सिंह को कड़ी टक्कर दी थी। हालांकि, करीब 58 हजार वोटों से तनवीर हार गए थे, लेकिन करीबी मुकाबले में हार-जीत से किसी की अहमियत कम नहीं हो जाती है।
भोला की मृत्यु के बाद नवादा से लाकर गिरिराज को बेगूसराय के अखाड़े में भाजपा ने शायद इसलिए उतारा कि कन्हैया की शैली से मुकाबले के लिए उसे वैसे ही किसी तजुर्बेकार नेता की जरूरत थी। गिरिराज को इसमें महारत हासिल है। वह नवादा के पुराने अखाड़े को छोड़ने के लिए राजी नहीं थे, लेकिन बाद में वह किसी तरह तैयार हो गए।
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चारों तरफ बिरादरी की बात
भूमिहार बहुल बेगूसराय में चारों तरफ बिरादरी की बात ही उछाली जा रही है। गिरिराज और कन्हैया भूमिहार हैं। तनवीर मुस्लिम। लिहाजा, जाति-धर्म के आधार पर समीकरण बनाए-बिगाड़े जा रहे हैं। भाजपा के परंपरागत वोटर और जातीय समीकरण गिरिराज के काम आ सकते हैं। ऐसा ही संयोग कन्हैया के साथ भी है।
राजद के मजबूत माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण के सहारे तनवीर हैं। किसी को ज्यादा और कम नहीं कहा जा सकता। वोटों की छीना-झपटी के लिए कन्हैया का संघर्ष सीधे तनवीर से है। गिरिराज के सामने कन्हैया तनकर तभी खड़े हो सकेंगे जब तनवीर के आधार वोट में सेंध लगाने में कामयाब हो जाएंगे। नाकाम हुए तो वाम विचारों को झटका लगना तय है।
समीकरण भी बदल जाएगा। गिरिराज के सामने तनवीर खड़े मिलेंगे। हालांकि जीत की राह तब भी आसान नहीं होगी। माय के अलावा पिछड़ी जातियों का सहारा लेकर ही वह सपने सजा सकते हैं। कन्हैया अगर महागठबंधन के प्रत्याशी होते तो भाजपा को कड़ी चुनौती दे सकते थे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। गिरिराज को फौरी तौर पर राहत मिलती दिख रही है, किंतु दोबारा संसद में पहुंचने के लिए उन्हें गोलबंदी का जुगाड़ करना होगा।
जदयू से मिला संबल
कमल से लगाव रखने वालों को पिछले नतीजे से निराशा हो सकती है। बेगूसराय के सात विधानसभा क्षेत्रों में किसी पर भी भाजपा का खाता नहीं खुल सका था। 2014 में जिस भाजपा को बेगूसराय में 4.28 लाख से ज्यादा लोगों ने पसंद किया था, उसे महज सालभर बाद विधानसभा चुनाव पर शिकस्त मिली। सभी सीटों पर पुराने महागठबंधन ने कब्जा जमा लिया।
राजद तीन और कांग्रेस-जदयू ने दो-दो सीटें जीतकर भाजपा का पत्ता साफ कर दिया। संसदीय चुनाव में भाजपा को साहेबपुर कमाल क्षेत्र को छोड़कर सभी छह सीटों पर बढ़त मिली थी। लेकिन विधानसभा चुनाव में सभी पर भाजपा और उसके साथी दलों के प्रत्याशी हार गए। राहत की बात यह कि सात में से दो सीटों पर जीतने वाला जदयू संसदीय चुनाव में भाजपा के साथ खड़ा है।