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गेहूं और धान छोड़कर जौ, बाजरा, ज्वार, मडुआ, सावां एवं कोदो की खेती कर रहे बिहार के ये किसान

बिहार की खेती एक बार फिर करवट ले रही है। रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग से बंजर हो रही धरती सेस चिंतित किसान फसलों की पुरानी प्रजातियों की ओर लौट रहे हैं। कुछ किसान इसे परंपरागत खेती तो कुछ प्राकृतिक खेती का नाम दे रहे हैं।

By Shubh Narayan PathakEdited By: Published: Wed, 29 Dec 2021 11:57 AM (IST)Updated: Wed, 29 Dec 2021 12:00 PM (IST)
गेहूं और धान छोड़कर जौ, बाजरा, ज्वार, मडुआ, सावां एवं कोदो की खेती कर रहे बिहार के ये किसान
पुरानी प्रजातियों की ओर लौट रही बिहार की खेती। प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

पटना, नीरज कुमार। बिहार की खेती एक बार फिर करवट ले रही है। रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग से बंजर हो रही धरती से चिंतित किसान फसलों की पुरानी प्रजातियों की ओर लौट रहे हैं। कुछ किसान इसे परंपरागत खेती तो कुछ प्राकृतिक खेती का नाम दे रहे हैं। अब किसान पैदावार की अंधी होड़ से बचना चाहते हैं। उनकी प्राथमिकताएं बदल रही है। ऐसे किसानों को मदद करने के लिए सरकार भी आगे आ रही है। परंपरागत खेती में शामिल जौ, ज्वार, बाजरा, मडुआ, सामा एवं कोदो की खेती को भी सरकार बढ़ावा दे रही है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् (पूर्वी क्षेत्र) पटना के निदेशक डा. उज्ज्वल कुमार का कहना है कि रासायनिक खादों के उपयोग से किसानों का मोह भंग होने लगा है। अब वे एक बार फिर अपनी परंपराओं की ओर लौटना चाहते हैं। प्रगतिशील किसान जीरो बजट की खेती को प्राथमिकता दे रहे हैं।

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प्रगतिशील किसानों को भा रही जीरो बजट की खेती

प्रदेश के प्रगतिशील किसानों के लिए जीरो बजट की खेती खूब भा रही है। डा.उज्ज्वल का कहना है कि जीरो बजट की खेती में लागत नाममात्र आती है। प्रयोग के तौर पर परिषद् की ओर से गया जिले में लगभग दस एकड़ में ऐसी खेती शुरू की गई है। इसके लिए किसानों को मडुआ का बीज मुहैया कराया गया है। वर्तमान में परंपरागत खेती के बीजों को लेकर थोड़ी परेशानी हो रही है। जैसे-जैसे बीज की व्यवस्था हो रही है, वैसे-वैसे परंपरागत खेती का दायरा बढ़ते जा रहा है। गया जिला पानी की कमी वाले जिलों में शामिल है।

पटना जिले में 4250 एकड़ में हो रही परंपरागत खेती

पुरानी कृषि पद्धति या परंपरागत खेती में पटना जिला अग्रणी है। यहां पर लगभग 4250 एकड़ में ज्वार, बाजरा, सावां-कोदो, मड़ुआ आदि की खेती की जा रही है। बागवानी अधिकारी विजय पंडित का कहना है कि वर्तमान में जिले में परंपरागत खेती के लिए 85 क्लस्टर बनाये गए हैं। एक क्लस्टर में 50 एकड़ शामिल है। एक क्लस्टर में 20 से लेकर 50 किसानों को शामिल किया गया है।

फसलों पर होता नीमाष्ट का उपयोग

परंपरागत खेती में न तो रासायनिक खादों का उपयोग किया जाता है न ही रासायनिक कीटनाशी का। इन खेतों में उपयोग करने के लिए नीमाष्ट का उपयोग किया जाता है। नीमाष्ट नीम के तेल से बनाया जाता है। नीम के तेल में लहसुन, तंबाकू को मिलाकर कुछ दिन सडऩे के लिए छोड़ दिया जाता है। उसके बाद उसे छानकर पानी में मिलाकर फसलों पर छिड़काव किया जाता है। इससे फसलों पर लगे कीट मर जाते हैं।

चंपारण की मिरचइया और भोजपुर के सोनाचूर की सर्वाधिक मांग

पुरानी प्रजाति के धान के चावल एवं चूड़े की काफी मांग हो रही है। मीठापुर कृषि अनुसंधान संस्थान के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक एवं धान की प्रजातियों पर रिसर्च करने वाले विज्ञानी डा.अनिल कुमार का कहना है कि बिहार में चंपारण इलाके में पैदा की जाने वाली मिरचइया, भागलपुर की कतरनी एवं भोजपुर इलाके के सोनाचूर के चावल एवं चूड़े की मांग दुनियाभर में हो रही है। कतरनी एवं मिरचइया सुगंधित प्रजाति का धान है।

तेजी से बढ़ रहा परंपरागत फसलों का बाजार

परंपरागत फसलों का कारोबार करने वाले युवा उद्यमी संतोष कुमार का कहना जौ, ज्वार, बाजरा, मडुआ, सावां, कोदो की मांग काफी तेजी से बढ़ रही है। पहले केवल पटना में इसकी मांग होती थी लेकिन अब तक छोटे-छोटे शहरों से भी मांग हो रही है। अभी प्रतिमाह 500 किलोग्राम से ज्यादा इन फसलों का आटा बिक जाता है। केवल राजधानी में ही 300 किलोग्राम से ज्यादा की बिक्री हो रही है। स्वास्थ्य के प्रति सचेत रहने वाले लोग गेहूं के बदले ज्वार, बाजरा एवं मडुआ के आटे की मांग कर रहे हैं। राजधानी के अलावा महानगरों में भी मडुआ एवं बाजरा के आटे की आनलाइन मांग हो रही है। पटना से भेजा भी जा रहा है।


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