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Emergency 1975: जब प्रेस की आजादी छीनने की कीमत इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी थी

प्रेस पर कठोर अंकुश लगाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी जमीनी हकीकत से काफी दूर हो गईं। जनता के बड़े वर्ग में भीतर-भीतर ऐसा आक्रोश पनपा कि आपातकाल हटने के बाद मार्च 1977 में जब संसदीय चुनाव हुए तब उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया था।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 25 Jun 2021 11:03 AM (IST)Updated: Fri, 25 Jun 2021 12:16 PM (IST)
Emergency 1975: जब प्रेस की आजादी छीनने की कीमत इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी थी
प्रेस के लिए दमन का पर्याय था आपातकाल

सुशील कुमार मोदी। वैसे तो 1975 के पहले भी 1962 में साम्यवादी चीन के आक्रमण और मात्र नौ साल बाद 1971 में पाकिस्तान से युद्ध के कारण देश में आपातकाल लगाना पड़ा था, लेकिन दोनों बार प्रेस की आजादी नहीं छीनी गई थी। 1962 में कांग्रेस सरकार की गलतियों और प्रतिरक्षा नीति की खुलेआम आलोचना होती रही, परंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कभी प्रेस की आजादी में दखल नहीं दिया। इसके विपरीत इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा उनके चुनाव को रद करने के बाद त्यागपत्र देने के बजाय अपने पद पर बने रहने के लिए 25-26 जून, 1975 की आधी रात को देश में जो इमरजेंसी लगाई, उसकी सबसे बड़ी मार प्रेस पर ही पड़ी।

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इंदिरा जी का आपातकाल स्वतंत्र प्रेस के लिए उस वक्त का कोरोना काल साबित हुआ। उस दौर में प्रमुख अखबारों के कार्यालय दिल्ली के जिस बहादुरशाह जफर मार्ग पर थे, वहां की बिजली लाइन काट दी गई, ताकि अगले दिन के अखबार प्रकाशित नहीं हो सकें। जो अखबार छप भी गए, उनके बंडल जब्त कर लिए गए। हॉकरों से अखबार छीन लिए गए। 26 जून की दोपहर होते-होते प्रेस सेंसरशिप लागू कर अभिव्यक्ति की आजादी को रौंद डाला गया। अखबारों के दफ्तरों में अधिकारी बैठा दिए गए। बिना सेंसर अधिकारी की अनुमति के अखबारों में राजनीतिक खबर नहीं छापे जा सकते थे।

जब इंद्र कुमार गुजराल सरकार के मनोनुकूल मीडिया को नियंत्रित नहीं कर पाए तो आपातकाल के शुरुआती दिनों में उन्हें हटा कर विद्याचरण शुक्ल को नया सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया। प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर सहित लगभग 250 पत्रकारों को पूरे आपातकाल के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया। 50 से ज्यादा पत्रकारों, कैमरामैन की सरकारी मान्यता रद कर दी गई। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया भंग कर दिया गया। इतना ही नहीं आयकर, बिजली, नगरपालिका के बकाये की आड़ में अखबारों पर छापे डाले गए। बैंकों को कर्ज देने से रोका गया। कुछ अखबारों ने सेंसरशिप के पहले दिन विरोध में संपादकीय स्थान को खाली छोड़ दिया। एक अखबार ने सेंसरशिप की आंखों से बचकर शोक संदेश के कालम में छापा-‘आजादी की मां और स्वतंत्रता की बेटी लोकतंत्र की 26 जून, 1975 को मृत्यु हो गई।’

सेंसरशिप के कारण जेपी सहित अन्य कौन-कौन नेता कब गिरफ्तार हुए, उन्हें किन-किन जेलों में रखा गया, ये खबरें समाचार पत्रों को छापने नहीं दी गईं। यहां तक कि संसद एवं न्यायालय की कार्यवाही पर भी सेंसरशिप लागू थी। संसद में अगर किसी सदस्य ने आपातकाल, प्रधानमंत्री या सेंसरशिप के खिलाफ भाषण दिया तो वह कहीं नहीं छप सकता था। सीपीएम नेता नंबूदरीपाद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पत्र लिख कर कहा था कि आजादी के आंदोलन में भी अंग्रेजों ने विरोधी नेताओं के नाम और बयान छापने पर रोक नहीं लगाई थी। न्यायालय द्वारा सरकार के विरुद्ध दिए गए निर्णयों को भी छापने की मनाही थी। यह विडंबना थी कि जिस इंदिरा गांधी ने 1975 में प्रेस सेंसरसिशप लागू किया, उन्हीं के पति फिरोज गांधी प्रेस की आजादी और विचारों की स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे। स्वाधीन भारत के प्रारंभिक वर्षो में संसद की कार्यवाही को छापने पर अनेक पाबंदियां थीं और इसका उल्लंघन करने पर किसी पत्रकार पर मुकदमा चलाया जा सकता था। बाद में फिरोज गांधी के प्रयास से यह प्रतिबंध हटा।

हालांकि आपातकाल की ज्यादतियों के समाचार को विदेशी अखबारों में छपने से सरकार रोक नहीं पा रही थी। इंदिरा जी विदेशी पत्रकारों पर काफी नाराज थीं। लोग विश्वसनीय समाचार के लिए आकाशवाणी के बजाय बीबीसी न्यूज पर भरोसा करने लगे थे। भारत में बीबीसी के प्रमुख संवाददाता मार्क टुली को 24 घंटे के भीतर देश छोड़ने के लिए बाध्य किया गया था। प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम्स, न्यूज वीक, द डेली टेलीग्राफ के संवाददाताओं को भी भारत छोड़ना पड़ा था। सरकार पर कटाक्ष करने वाले कार्टून, व्यंग्य, चुटकुले भी सेंसर की मार से बच नहीं पाए। अपने समय के व्यंग्य चित्रों की प्रसिद्ध पत्रिका शंकर्स वीकली ने अंतिम संपादकीय में लिखा-तानाशाही कभी हंसी स्वीकार नहीं करती, क्योंकि तब लोग तानाशाह पर हंसेंगे। केवल पत्रकार ही नहीं, फिल्मी हस्तियों पर भी गाज गिरी। जो अभिनेता-कलाकार सरकार के समर्थन में नहीं थे, उन्हें काली सूची में डाल दिया गया। प्रसिद्ध पाश्र्वगायक किशोर कुमार के रोमांटिक फिल्मी गानों का आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण रोक दिया गया था। गुलजार की फिल्म आंधी पर रोक लगा दी गई, क्योंकि नायिका सुचित्र सेन और नायक संजीव कुमार फिल्म में इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी से मिलते जुलते लगते थे। कांग्रेस सांसद अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का भी आपातकाल का शिकार हुआ। फिल्म के प्रिंट को जला दिया गया।

प्रेस पर ऐसे कठोर अंकुश लगाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी जमीनी हकीकत से काफी दूर हो गईं। जनता के बड़े वर्ग में भीतर-भीतर ऐसा आक्रोश पनपा कि जब आपातकाल हटने के बाद मार्च 1977 में संसदीय चुनाव हुए, तब लगभग पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया। प्रेस की आजादी छीनने की कीमत इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी थी।

[पूर्व उप मुख्यमंत्री, बिहार एवं सदस्य, राज्य सभा]


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