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रस्सी भी जल गई और ऐंठन भी, बांधने वाले खुद बिखरने लगे हैं; दर्द भरी है सिवान के इन परिवारों की कहानी

Siwan News आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी के बीच पुरानी चीजें धीरे-धीरे खोती जा रही हैं। इसका सामाजिक संरचना के साथ आर्थिक तौर पर भी पड़ रहा है। सिवान जिले के दारौंदा में धानुक जाति की काफी आबादी है।

By Shubh Narayan PathakEdited By: Published: Sat, 31 Jul 2021 12:59 PM (IST)Updated: Sat, 31 Jul 2021 12:59 PM (IST)
रस्सी भी जल गई और ऐंठन भी, बांधने वाले खुद बिखरने लगे हैं; दर्द भरी है सिवान के इन परिवारों की कहानी
सुतली की डिमांड घटने से धानुक समुदाय हो रहा बेरोजगार। प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

दारौंदा (सिवान), संवाद सूत्र। आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी के बीच पुरानी चीजें धीरे-धीरे खोती जा रही हैं। इसका सामाजिक संरचना के साथ आर्थिक तौर पर भी पड़ रहा है। सिवान जिले के दारौंदा में धानुक जाति की काफी आबादी है। इस जाति का पुश्तैनी पेशा सुतली काटना और उससे रस्सी बनाना है, लेकिन बदलते दौर ने इनका पुश्तैनी पेशा छीन लिया। इस कारण इनके समक्ष पेशा को बचाना और जीविकोपार्जन करना चुनौती बन गई है। दो दशक पूर्व तक खेती के कार्यों में जहां बैल की मदद ली जाती थी आज उसकी जगह  ट्रैक्टर ने ले ली। इससे कृषि कार्यों के लिए रस्सी, पगहा, गलजोरी, बरही आदि की जरूरत खत्म हो गई। पटसन की रस्सी की जगह प्लास्टिक की रस्सी आ गई। इस कारण कुछ वर्ष पूर्व तक समाज में बड़ी भूमिका निभाने वाले धानुक हाशिये पर चले गए।

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प्रखंड के बालबंगरा पंचायत के बेलदारी टोला, रगडग़ंज, झझवां, रामगढ़ा, कौथुआ सारंगपुर पंचायत के बसवरिया टोला, अभुई, करसौत पंचायत के बोधा छपरा, भाऊ छपरा, सिरसांव, बगौरा आदि में 1000 घर धानुक जाति के लोग रहते हैं। एक जमाने में गांव के बड़े किसान इनके दरवाजे पर रस्सी, पगहा, गलजोरी, बरही आदि के लिए चक्कर लगाते थे, लेकिन अब रस्सी की मांग ही खत्म हो गई है। इस कारण इनके समक्ष रोजगार की समस्या उत्पन्न हो गई है। 

इसका असर यह है कि इस जाति के लोग बड़े शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं या मजदूरी कर अपना जीविकोपार्जन चलाते हैं। पलानी के घर व नंग-धड़ंग बच्चों को देख कर इनकी बस्ती का अंदाजा लगाया जा सकता है। बसवरिया टोला, बेलदारी टोला, रगडग़ंज आदि में धानुक बस्ती के अधिकतर लोगों को आज तक पक्का मकान नसीब नहीं हो पाया है।  बदली व्यवस्था ने धानुकों की अहमियत घटने से स्थानीय शिवनाथ महतो, अनिल महतो, भोला महतो, आशीष महतो, ललन महतो, राहुल महतो, बेचु महतो आदि को रोजी-रोटी छीनने का मलाल है।

समय के साथ बदल गई लोगों की मांग

बसवरिया टोला के चंदन महतो बताते हैं कि इनकी जिंदगी व रोजी-रोटी किसानों की खेतीबाड़ी से जुड़ी हुई है, लेकिन कृषि कार्य के स्वरूप बदलने के साथ ही धीरे-धीरे इनकी रोजी-रोटी छिनती चली गई। रवींद्र महतो बताते हैं कि पहले किसान बड़े पैमाने पर पटसन व सनई उगाते थे, जिससे धानुक जाति को आसानी से पटसन व सनई के रेशे मुहैया हो जाते थे। इसी रेशे से सुतली बना कर धानुक जाति के लोग रस्सी, पगहा, गलजोरी, बरही आदि बनाते थे, जो पशुओं को बांधने व कृषि कार्यों में काम आता था, लेकिन किसानों ने मवेशी पालना कम कर दिया और बैलों की जगह ट्रैक्टर ने ले ली।

यूपी, पंजाब सहित कई प्रदेशों में होती थी रस्सी की सप्लाई

बता दें कि रस्सी, पगहा, गलजोरी, बरही, बरहा आदि की खरीदारी के लिए जिला ही नहीं उत्तर प्रदेश के बलिया एवं पंजाब के व्यापारी यहां से सुतली खरीदते थे। स्थानीय स्तर पर भी दारौंदा, महाराजगंज मुख्यालय के काजी बाजार, पुरानी बाजार, पसनौली, सिहौता आदि बाजार में बहुत आसानी से बिक्री हो जाती थी।  महाराजगंज में तो सुतली व रस्सी लेने सिवान, छपरा, बलिया, पंजाब के व्यापारी आया करते थे।

एक किलो सुतली तैयार करने में दो से तीन दिन का लगता है समय

अजीत महतो ने बताया कि एक किलो सुतली तैयार करने में एक व्यक्ति को दो से तीन दिन लग जाते हैं। उस सुतली को बाजार में बेचने जाने पर 160-180 रुपये मिलते हैं। इस कार्य के लिए सरकार द्वारा कोई अनुदान या प्रोत्साहन भी नहीं मिलता है। बीडीओ दिनेश कुमार सिंह ने बताया कि सुतली बनाने के लिए  प्रोत्साहन देने के लिए फिलहाल कोई योजना नहीं है। इसके बावजूद सरकार द्वारा पंचायतों में चल रही योजनाओं का लाभ दिलाने का प्रयास किया जाता है।


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