CM नीतीश ने दैनिक जागरण के आलेख से जताई सहमति, दलाई लामा को ले कही ये बात
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दलाई लामा के संबंध में दैनिक जागरण में प्रकाशित गोपाल कृष्ण गांधी के आलेख की प्रशंसा की है। आलेख में क्या है जानते हैं इस खबर में।
पटना [जेएनएन]। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दैनिक जागरण में प्रकाशित गोपाल कृष्ण गांधी के दलाई लामा के संबंध में लिखे आलेख की तारीफ की है। आलेख में 'भारत की जरूरत हैं दलाई लामा' में दलाई लामा को भारत की जरूरत बताया गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रविवार को इस आलेख के संबंध में ट्वीट किया है।
विदित हो कि अपने ट्वीट में नीतीश कुमार ने गोपालकृष्ण गांधी द्वारा ‘दैनिक जागरण’ में दलाई लामा पर लिखे आलेख ‘भारत की जरूरत हैं दलाई लामा’ से सहमति जताई है। उन्होंने लिखा है कि एकता, प्रेम, अहिंसा, भाईचारा और विश्व शांति के अमूल्य सिद्धांत भारत को अतुल्य बनाते हैं। वैचारिक मार्गदर्शी के रूप में परम पावन दलाई लामा का सानिध्य महत्वपूर्ण है।
दैनिक जागरण के 13 अप्रैल के अंक में गोपाल कृष्ण गांधी का आलेख 'भारत की जरूरत हैं दलाई लामा' प्रकाशित हुआ है। आलेख में दलाई लामा को भारत की जरूरत बताया गया है। इसमें कहा गया है कि इंसानियत, हमदर्दी, विश्व-शांति व विश्व-बंधुत्व को उनकी जरूरत है। आलेख में आगे कहा गया है कि भारत के लोग जानते हैं कि दलाई लामा जैसी हस्ती हमारे बीच हैं, लेकिन उस ज्ञान व बात को हमने अपने दिमाग और दिल के एक कोने में डाल दिया है। आइए डालते हैं दलाई लामा के संबंध में गोपाल कृष्ण गांधी के आलेख पर नजर...
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भारत की जरूरत हैं दलाई लामा
यह राहतकारी है कि दलाई लामा अस्पताल से बाहर आ गए। उनकी उम्र (83 साल) में थोड़ी-सी भी बीमारी चिंता का कारण बन जाती है। सो प्रार्थना कर रहा हूं कि ईश्वर उन्हें शक्ति युक्त करे और सीधे उन्हीं को कह रहा हूं- ऋषि! हमें आपकी बहुत जरूरत है। भारत को आपकी जरूरत है। इंसानियत को, हमदर्दी को, विश्व-शांति को, विश्व-बंधुत्व को आपकी जरूरत है।
हम भारत के लोग जानते हैं कि दलाई लामा जैसी हस्ती हमारे बीच हैं, लेकिन उस ज्ञान को, उस बात को, हमने अपने दिमाग और दिल के एक कोने में डाल दिया है। ठीक वैसे, जैसे घरों में लोग किसी संदूक में कोई कीमती असबाब रख देते हैं, जैसे कि पुरानी रुद्राक्ष की जप-माला जो इतनी शिथिल नहीं कि स्पर्श से टूट जाए, लेकिन इतनी मजबूत भी नहीं कि उसे लेकर हम जाप करें। या कोई पुरानी तस्वीर, कोई खत, कभी किसी जमाने में लिखा हुआ दस्तावेज जिससे आज किसी का कोई सरोकार नहीं, जो हर रोज के काम के लिए जरूरी नहीं, जिसकी हमें कद्र है, जरूरत नहीं, जो यादों की दुनिया में रहता है, फायदों की दुनिया में नहीं।
दलाई लामा को हमने संभाल के रख दिया है, एक सिरे पर। यहां दोनों शब्द काबिल-ए-गौर हैं- संभाल और सिरा..। संभाला है हमने जरूर उनको। आश्रय दिया है, रहने को जगह। वह खुद कहते हैं, भारत ने उनको शरण दी है, पनाह दी है। शरण जो शब्द है, वह बुद्ध संस्कृति में बहुत महत्व रखता है। बुद्धम् शरणम् धम्मम् शरणम् संघम् शरणम्! इसलिए दलाई लामा कहते हैं कि तिब्बत से भागते हुए जब वह भारत पहुंचे तब पंडित नेहरू की सरकार ने और भारत की जनता ने उनको जो शरण दी, वह पुनर्जन्मी शरण थी। उस शरण से उनको न केवल रहने को जगह मिली, बल्कि उनके अस्तित्व को आदर मिला, उनकी पुरातन संस्कृति, उनके इतिहास, उनकी तिब्बती सभ्यता को मर्यादा मिली।
चीन ने भले ही तिब्बत की देह को अपना बनाया, भारत ने तिब्बत की आत्मा को संभाला। यह कितने देशों के बारे में कहा जा सकता है? कितने देश हैं दुनिया में, जिन्होंने किसी एक व्यक्ति, किसी एक समुदाय को नहीं, बल्कि एक पूरी सिफत को, एक तमाम तहजीब को, एक मुल्क के जज्बात को अपना बनाया? दलाई लामा यह जानते हैं, बार-बार कहते हैं। अपने अंदाज में कहते हैं, मेरा जन्म तिब्बत में हुआ, पर भारत में मैं पला हूं। यहां की दाल-रोटी मेरी हर नस में है। यह हकीकत है।
दूसरी हकीकत है- सिरा। पनाह दी है भारत ने, पर फिर वह संदूक जो ठहरा। एक सिरे में, खाट के नीचे जहां वह नजर न आए, कोने में जो कि किसी के रास्ते में न आए, जिसकी जगह किसी और काम में न होए, वह सिरा। हमने धर्म अपनाया, शरण दी। फिर.. सिरा-शरणम् गच्छामि। कोना-शरणम् गच्छामि। हाशिया-शरणम् गच्छामि। धर्मशाला वह कोना है। बेहद सुंदर, बेहद शांतमय। बेहद स्वास्थ्य-संपन्न। हिमालय की गोद कोई मामूली जगह नहीं। रमणीय है, स्मरणीय है, लेकिन मेरा मतलब भौतिक सिरे से नहीं है। जब मैं कहता हूं कि दलाई लामा को हमने एक सिरे में रख डाला है तो मेरा मतलब है दिमागी सिरे से। उनको हमने, हिंदी-नुमा अंग्रेजी में कहें तो एडजस्ट कर दिया है। वह महापुरुष हैं, धर्म-पुरुष हैं, गुरु-समान, प्रणम्य। उनको आदर मिल गया है, प्रणाम मिलता है और इससे आगे क्या करने की जरूरत है? हाय जरूरत! क्यों और कैसी जरूरत?
यहां मैं कहे देता हूं कि मेरा उद्देश्य दलाई लामा को राजनीतिक रंगों में रंगने का नहीं है। उनके विवेक ने, उनकी बुद्धि ने, उनकी साफगोई समझ ने उनको राजनीति से दूर, सुदूर रहने को कहा है। भारत और चीन के बीच उनके कारण कोई तनाव हो, ऐसा उन्होंने कुछ न करना अपना एक बुनियादी कर्तव्य माना है और उसका पालन किया है। भारत की भीतर की राजनीति में तनिक भी दखल न देने का भी उन्होंने आरंभ से अपना रवैया बनाया है। यह भी उतना ही सराहनीय है। यह भी कहना ठीक होगा कि किसी राजनीतिक दल ने भी उन्हें राजनीति में लाने की कोशिश नहीं की है। सबने उनका धार्मिक महत्व पहचाना है और उसका आदर किया है।
दलाई लामा ने जो भी कुछ सार्वजनिक बयान दिए हैं तो वे भाईचारे और अमन के पक्ष में दिए हैं। सद्बुद्धि करुणा, प्रेम के पक्ष में। इतना ही नहीं, उन्होंने बुद्ध के सवरेपरि शिष्य होते हुए भी बौद्ध धर्म को भारत के अन्य धमोर्ं से बड़ा या ऊंचा दिखाने का प्रयत्न नहीं किया है। इस संयम से दलाई लामा का कद बहुत ऊंचा बना है। आज हमारे देश में कई ऊंचे कद के लोग हैं- सियासत में, उद्योग में, विज्ञान और तकनीक में, लेखक वर्ग में। फिल्म, खेल जगत में सितारों की कमी नहीं। धार्मिक संस्थाओं में भी पहुंचे हुए लोग मिल जाते हैं, लेकिन दार्शनिक जो कहलाए जाते हैं, वैचारिक मार्गदर्शी, उनकी सख्त कमी है। गांधी, विनोबा, बाबासाहब आंबेडकर, जयप्रकाश सामाजिक दार्शनिक थे। उनके विचार राजनीति से जुड़े होते हुए भी, राजनीति से ऊपर थे- समाज को संबोधित करते थे। दक्षिण में ईवी रामास्वामी पेरियार भी ऐसे थे। आज ढूंढ़ने पर भी ऐसा दार्शनिक नहीं मिलता है भारत में। धर्मगुरु और महंतों में अंतर कम है। महंत मिल जाएंगे, मुनि नहीं। राजयोगी मिल जाएंगे, ऋषि नहीं।
दीया तले अंधेरा, यह हम सुन चुके हैं। दलाई लामा हमारे बीच होते हुए भी हमारे हृदय के मध्य नहीं, उसके एक सिरे पर हैं, इसलिए मैं उन्हें अंधेरे तले दीया मानता हूं। हमें उस दीये को अंधेरे से बाहर लाना है। उसके उजाले से अपना सामाजिक मार्ग ढूंढ़ना है। छल, कपट, लालच, ईष्र्या, हिंसा.. इनका सामना समाज में कैसे करें, इसका बोध दलाई लामा से ज्याद कौन देगा? लेकिन नहीं.. हम उनकी ओर देख उनकी हिदायत नहीं मांग रहे हैं। और वह जो ठहरे संयमी, वह खुद अपना उपदेश हम पर नहीं थोपने वाले। रही बात सरकार की।
आज की वर्तमान सरकार ही नहीं, सारी सरकारें हिंदुस्तान की, दलाई लामा के विषय में संकोची रही हैं। क्या चीन की प्रतिक्रिया से इतनी घबराई हुई हैं? मेरी समझ में चीन से इस बात पर घबराना अनावश्यक है। हम तिब्बत की संस्कृति का पोषण जरूर चाहेंगे, पर उसका चीन में समावेश हम स्वीकार चुके हैं। समस्या यहां नहीं।
दलाई लामा स्वयं तिब्बत को चीन से अलग नहीं देखते हैं, वह सिर्फ तिब्बती अध्यात्म एवं संस्कृति की और वहां की बौद्ध परंपरा की सुरक्षा चाहते हैं। तो फिर हमारी सरकारें दलाई लामा को भारत-रत्न से क्यों नहीं अलंकृत करना चाहतीं? बादशाह खान अब्दुल गफ्फार खान, नेल्सन मंडेला, मदर टेरेसा को भारत-रत्न हमने नि:संकोच ही नहीं, सहर्ष प्रदान किया है। दलाई लामा की क्या गलती है कि वह इस सवरेपरि उपाधि से वंचित हैं? इसमें उनकी क्षति नहीं, हमारी है।
वैसे बात भारत-रत्न की नहीं। बात भारत के स्वाभिमान की है। दलाई लामा जहां भी जाते हैं, दुनिया उनमें बुद्ध का स्वरूप देखती है। केवल हम हैं, जो उनमें तथागत का दर्शन नहीं देखते। इतना कहकर अपनी बात पूरी करता हूं कि आज बाबासाहब आंबेडकर हमारे मध्य होते तो कहते, चीन से हमारा रिश्ता अपनी जगह है, हमारे अंतस से हमारा रिश्ता अपनी जगह है। दलाई लामा भारत के ही नहीं, विश्व के रत्न हैं। अंधेरे में रोशनी..। ईश्वर उन्हें दुरुस्त रखे।
- गोपालकृष्ण गांधी
(वर्तमान में अध्यापनरत लेखक पूर्व राजनयिक-राज्यपाल हैं)