Bihar Assembly By-Election: सबको सीख दे गए उपचुनाव के नतीजे, INSIDE STORY
Bihar Assembly By-Election मजबूत विपक्षी गठजोड़ के बिना जाति की राजनीति के अखाड़े बिहार में विकास या बेराजगारी के मुद्दे अभी इसकी काट नहीं बन पाए हैं। नतीजे इशारा कर रहे हैं कि अगले चुनाव की तैयारी में फिर से जुटेंगे और वैसी ही रणनीति पर काम करेंगे।
पटना, आलोक मिश्र। Bihar Assembly By-Election दीपावली बीत चुकी है और बिहार अब छठ पर्व के पवित्र परिवेश में रच-बस गया है। उपचुनाव की खुमारी पूरी तरह उतर चुकी है। तारापुर और कुशेश्वरस्थान की सीटें सत्तारूढ़ जनता दल यूनाइटेड (जदयू) बचाने में सफल रहा है। सत्ता में तोड़-फोड़ का मंसूबा लेकर महीने भर पटना में ठहरने आए लालू दिल्ली लौट गए हैं। मनमुटाव के आरोपों को खारिज कर एनडीए एकजुटता दिखाने में सफल रहा और एकजुटता तोड़ अलग अस्तित्व के बूते खुद की मजबूती दिखाने में विपक्ष असफल। चाचा पारस और भतीजे चिराग के बीच की लड़ाई का भी साक्षी रहा यह उपचुनाव।
एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच होने वाले उपचुनाव एक तरह से मौजूदा राजनीतिक नब्ज नापने के साधन होते हैं। वैसे तो अक्सर ये नतीजे सरकार के पक्ष में ही आते हैं, लेकिन अगर न भी आएं तो भी भावी राजनीति के लिए बहुत कुछ सबक दे जाते हैं। बिहार में तारापुर और कुशेश्वरस्थान के नतीजे जदयू के पक्ष में आए और उसकी सीटें बरकरार रहीं। विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के हाथ में पहले भी वहां कुछ नहीं था और चुनाव बाद भी कुछ हाथ नहीं आया। न किसी ने कुछ पाया और न ही किसी ने कुछ खोया, लेकिन संदेश सभी को कुछ न कुछ मिला। तारापुर में जदयू कठिन लड़ाई में आखिरी दौर तक फंसा रहा।
आखिरी के दो दौर की गिनती में ही उसे निर्णायक बढ़त मिली। जीत का अंतर पिछली बार से काफी कम रहा। सभी ने इसे जातिगत लड़ाई का कारण माना। राजद के वैश्य प्रत्याशी के कारण, मुस्लिम-यादव के परंपरागत गठजोड़ को मिलाने से बने समीकरण को बड़ा कारक ठहराया। नीतीश कुमार तक यह भी संदेश गया कि सरकार की साख निचले स्तर पर कम हो रही है। भ्रष्टाचार इसमें सबसे बड़ा कारण है। सरकारी योजनाओं की जानकारी, उसकी उपलब्धि जनता तक ठीक से नहीं पहुंच पा रही है। सबसे ज्यादा गड़बड़ी राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग में है। इसी कारण दीपावली के दूसरे ही दिन नीतीश कुमार ने उसकी बैठक बुला ली।
इस चुनाव में जीत के सहारे सरकार पर कब्जे का मंसूबा पाले लालू और तेजस्वी के अरमान भी ढेर हो गए। महीने भर की दवा लेकर पटना आए लालू, नतीजे देख गणना के दूसरे ही दिन दिल्ली लौट गए। जबकि पटना इंट्री से पहले दिल्ली से ही कांग्रेस और उसके बाद सरकार पर हमला कर, उसमें भगदड़ मचा देने की उन्होंने जमकर शाब्दिक बमबारी की। वाकई यह जीत न केवल राजद को जादुई आंकड़े (बहुमत) के करीब पहुंचा देती, बल्कि सरकार गठन के प्रयासों के लिए उसे अवसर भी दे देती।
विपक्ष द्वारा हर लड़ाई में लालू-राबड़ी राज को जंगलराज का मुद्दा बना देने के बावजूद लालू ने दोनों जगह सभा भी की। सभा की भीड़ देख जीत का उत्साह भी जगा, लेकिन नतीजा उसे ठंडा कर गया। बेरोजगारी पर सरकार को घेरने वाले तेजस्वी, बेहतर जातिगत समीकरण के तहत लड़ाई लड़ने के बावजूद हार गए। चुनाव में जंगलराज की काट के लिए पिता लालू की तस्वीर तक को पोस्टर से हटा देने के बावजूद इस चुनाव में इस मुद्दे की परख के लिए लालू को मैदान में भी लाए, वोट भी पिछली बार से बढ़े, लेकिन जीत नहीं मिली।
अब लालू, फायदेमंद या नुकसानदेह का सवाल लिए तेजस्वी के सामने और भी कई सवाल हैं। जदयू-भाजपा का समीकरण पिता के समय से चले आ रहे तेजस्वी के माई (मुस्लिम, यादव) में कुछ भी मिला देने से भी भारी पड़ता है। उपचुनाव से पहले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कन्हैया कुमार को शामिल कराकर यह संदेश देने की कोशिश की गई कि वो बदले रूप मे सामने आ रही है। राजद को चिढ़ाने के लिए यह पत्ता काफी था।
चुनाव में कन्हैया जोर-शोर से उतारे गए, लेकिन इस लिटमस टेस्ट में ही वे दगे कारतूस साबित हुए। इस चुनाव में कांग्रेस राजद से अलग रही। अलग रहकर लड़ी कांग्रेस का भी दंभ टूटा। वह लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) यानी चिराग की पार्टी से भी पीछे रही। उसको भी सीख मिली कि बिहार में राजद का साथ उसके लिए जरूरी है। हालांकि अभी भी कांग्रेसी अलग ही रहने की बात कर रहे हैं। पिता रामविलास के देहांत के बाद चाचा के बीच बटी पार्टी के एक हिस्से को लेकर खुद को पिता का असली वारिस ठहराने में जुटे चिराग भी पिछले चुनाव से पीछे रहे। चाचा एनडीए के साथ थे और चिराग फिर नीतीश को हराने के फेर में, उनके अरमान भी ठंडे पड़ गए हैं। तेजस्वी भी सोचेंगे कि एनडीए के खिलाफ कांग्रेस उनके लिए जरूरी है।
[स्थानीय संपादक, बिहार]