Bihar Politics: शंकाओं और उम्मीदों के बीच झूलती बिहार की राजनीति के लिए नया साल क्या लेकर आया!
नीतीश कुमार ने विपक्ष की सारी अटकलों को खारिज कर दिया है लेकिन राजद पानी में लाठी मारने में इस उम्मीद से जुटा है कि शायद कुछ नतीजा निकल आए और चुनाव में मिली हार का गम खुशी में बदल जाए।
पटना, आलोक मिश्र। तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों को समेटे 20 की आखिरी रात का आखिरी पल जब 21 से मिला तो बदलाव का अहसास लिए आकाश भी मुस्कुरा दिया। बधाइयों के बीच सभी को एक नई सुबह का इंतजार था। शुक्रवार को नए साल की पहली सुबह सभी के लिए आशा की किरण लेकर आई। राजनीतिक कटुता भुलाकर नेताओं ने भी प्रदेश के भले की शपथ ली। लेकिन राजनीतिक दलों की अपेक्षाएं आम व्यक्ति की तरह सरल तो होती नहीं और न ही बिना मशक्कत हाथ आती है। इसलिए राजद ने पानी में लाठी मारने की कवायद शुरू कर दी है, इस उम्मीद के साथ कि शायद लाठी काम कर जाए और उसके भाग्य जग जाएं।
पिछला सप्ताह तमाम राजनीतिक संदेशों का गवाह रहा। मित्रों के बीच (भाजपा और जदयू) तल्खी उपजी तो विपक्ष (राजद) ने संभावनाएं तलाशनी शुरू कर दीं। घटनाक्रम अरुणाचल प्रदेश में जदयू के सात में से छह विधायकों के भारतीय जनता पार्टी में जाने से शुरू हुआ। इनमें से चार पहले भाजपा में थे, उनकी घर वापसी जब हुई तो दो बढ़ा कर हुई।
जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद आरसीपी सिंह को कुर्सी पर बैठाते मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। जागरण
दरअसल बिहार के बाद अरुणाचल प्रदेश में ही जदयू का थोड़ा-बहुत अस्तित्व है। किसी विरोधी के बजाए भाजपा द्वारा उसका सिमटना भला उसे कैसे रास आता? हर शब्द को तौल कर बोलने वाले नीतीश कुमार इस घटनाक्रम पर तत्काल तो कुछ नहीं बोले, लेकिन शनिवार और रविवार को दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उनके तेवर तल्ख दिखे। नीतीश ने राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी छोड़कर अपने 23 साल के करीबी रामचंद्र प्रसाद सिंह (आरसीपी सिंह) को सौंप दी और दोबारा दोहरा दिया कि उन्हें पद का कोई मोह नहीं है। मुख्यमंत्री पद भी भारतीय जनता पार्टी के मनाने पर ही लिया है। बोल कड़े थे, इसलिए उसके मायने भी सभी ने अपने हिसाब से लगाए। विरोधी हिमायती बन बयान देने लगे कि अरुणाचल की तरह बिहार में भी भाजपा, जदयू को तोड़ देगी।
बेहतर होगा कि वो भाजपा छोड़ राजद के साथ सरकार बनाएं। कोई उन्हें पीएम मेटिरियल बताने लगा है तो कोई दिल्ली की राह सुझाने लगा है। यूं देखा जाए तो नीतीश कुमार का राष्ट्रीय पद छोड़ना और आरसीपी सिंह को बनाना एक सामान्य घटना है, लेकिन जिस तरह से अचानक यह हुआ, उसके भी निहितार्थ निकाले जाने लगे हैं। यह माना गया कि पक्ष या विपक्ष से उठने वाली किसी भी बात पर नीतीश कुमार खुल कर नहीं बोल सकते। इसलिए एक ऐसा चेहरा उन्हें चाहिए था, जिस पर वे भरोसा कर सकें और जो सांगठनिक गतिविधियों को बढ़ाने के साथ ही विरोधी स्वरों को कड़ा जवाब भी दे सके। गद्दी पर बैठते ही आरसीपी सिंह ने इसे शुरू भी कर दिया। अरुणाचल प्रदेश की घटनाक्रम पर तल्ख टिप्पणी करने के साथ ही पार्टी को राष्ट्रीय दर्जा दिलाने के लिए अन्य प्रदेशों में विस्तार की ठान ली। जदयू अब बंगाल और असम में ताल ठोकने को तैयार है।
अरुणाचल प्रदेश में उसने जमीन तैयार कर ही ली है। राष्ट्रीय बैठक में नीतीश ने इसका यह कहकर अहसास कराया था कि छह विधायक जाने के बाद भी एक खड़ा है और हमने पंचायत चुनाव में भी सफलता हासिल की है। यही हमारी ताकत है। हालांकि सरकार पर इसका कोई असर फिलहाल नहीं दिख रहा है। दोनों ही दल के नेता एक-दूसरे पर भरोसा जता रहे हैं, लेकिन उससे इतर राजद किसी भी अनहोनी पर अपनी रोटियां सेकने को आतुर दिख रहा है।
बात-बात पर बयान जारी करने वाला लालू परिवार तेल देखो, तेल की धार देखो वाले अंदाज में फिलहाल खुद तो चुप्पी साधे है, लेकिन छुटभैये से लेकर उसके अगली पंक्ति के नेता तक नीतीश को अहसास दिलाने में जुटे हैं कि भारतीय जनता पार्टी उनके साथ ठीक नहीं कर रही। एक पोस्टर भी लगा दिया गया है, जिसमें नीतीश कुर्सी पर बैठे हैं और जेपी नड्डा व अमित शाह उसके पाये काट रहे हैं। शंकाओं और उम्मीदों के बीच झूलती राजनीति के लिए नया साल क्या लेकर आया है, यह आगे की बात है, लेकिन इस बीच कुछ ऐसा ही चला बिहार में।
[स्थानीय संपादक, बिहार]