Bihar Politics: तेजस्वी यादव के सामने नई चुनौती पेश करेगी नीतीश-कुशवाहा की सियासी जोड़ी
राजद के वोट बैंक में असदुद्दीन ओवैसी ने पहले ही सेंध लगा चुके हैं। अब नीतीश और उपेंद्र कुशवाहा की जोड़ी ने नई चुनौती पैदा कर दी है। लव-कुश की आबादी के वितरण को देखते हुए इस सियासी जोड़ी के लिए हद का निर्धारण संभव नहीं है।
पटना, अरविंद शर्मा। विधानसभा चुनाव में मामूली फर्क से सत्ता से वंचित रह गए तेजस्वी यादव के सामने नीतीश कुमार और उपेंद्र कुशवाहा की जोड़ी नई चुनौती पेश कर सकती है। राजद के परंपरागत वोट बैंक में असदुद्दीन ओवैसी के प्रयासों ने पहले ही सेंध लगा दी है। ओवैसी के असर में कसर था। उनका दायरा क्षेत्र विशेष में सीमित था, लेकिन लव-कुश ( कुर्मी व कुशवाहा का जातिगत समीकरण ) की आबादी के वितरण को देखते हुए नीतीश-कुशवाहा के लिए हद निर्धारित नहीं की जा सकती है।
कुशवाहा ने तिनका-तिनका जोड़ा था
कुशवाहा के जदयू में आने से राजद को सबसे बड़ी चुनौती संगठन के स्तर पर मिलने वाली है। 20-25 वर्ष पहले जिन्होंने नीतीश कुमार के संघर्ष के दिनों को देखा है, उन्हें बेहतर पता है कि पर्दे के पीछे रहते हुए कुशवाहा ने कैसे संगठन तैयार किया था। तब लालू से अलग होकर नीतीश ने समता पार्टी का गठन किया था। कुशवाहा उसके प्रमुख संस्थापकों में से थे। उन्होंने तिनका-तिनका जोड़कर संगठन में जान डाली और बिहार में सत्ता पाने के काबिल बनाया। राजद के बड़े कुनबे के बावजूद कुशवाहा जैसा संगठन बनाने और चलाने वालों की कमी है। कुशवाहा के इस तजुर्बे से जदयू फायदा उठा सकता है, जिसका असर राजद पर पडऩा तय है। एक प्रतिद्वंद्वी मजबूत होगा तो दूसरे की ताकत क्षीण पड़ेगी ही।
राजद की चुप्पी बता रही कहानी :
रालोसपा के जदयू में विलय की घटना बिहार की राजनीति के लिए छोटी बात नहीं है, मगर हैरत है कि बात-बात पर अपनी राय का खुलकर इजहार करने वाले नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने इस मसले पर मुंह नहीं खोला। कुछ भी नहीं बोला। राजद के अन्य प्रवक्ता भी चुप ही रहे। इसका साफ संकेत है कि उपेंद्र कुशवाहा को भला-बुरा कहकर तेजस्वी उस समुदाय को खफा नहीं करना चाहते हैं, जो विधानसभा चुनाव में कुशवाहा के साथ खड़ा था। तेजस्वी की कोशिश उसे अपनी ओर खींचने की है। इसीलिए उन्होंने अपने दल में आलोक मेहता को आगे किया है। उन्हें प्रदेश का प्रधान महासचिव बनाया है। विधानसभा चुनाव में भी अच्छी तादाद में कुशवाहा समुदाय के दावेदारों को टिकट से नवाजा था।
लालू का भी तोड़ दिया था तिलिस्म :
जातीय जोड़-तोड़ की राजनीति वाले प्रदेश में विकास का मुद्दा संजीवनी की तरह काम करता है। कमियों को नजरअंदाज कर जीत का नया फार्मूला बनाता है। पिछले 30 वर्षों के बिहार के सियासी सफर का अगर विश्लेषण करें तो प्रारंभ में समाजवाद के नाम पर अगड़े-पिछड़े के नारे ने लालू प्रसाद को बड़ा सहारा दिया था। इसे तोड़ पाना किसी के बूते की बात नहीं दिख रही थी, लेकिन नीतीश-कुशवाहा की जोड़ी ने नब्बे के बाद मजबूत होकर उभरे लालू प्रसाद के तिलिस्म को न केवल तोड़ा, बल्कि अपनी राजनीति के लिए आधार भी तैयार किया। इन्होंने भी कमोबेश लालू के फार्मूले को ही आगे बढ़ाया। फर्क इतना ही था कि इस जोड़ी ने जातीय स्वाभिमान के साथ विकास का भी कॉकटेल बनाया।