चित्रों के जरिए पलायन करने वाले गिरमिटिया मजदूरों की कहानी बयां करता ये संग्रहालय
रोजी-रोटी की तलाश में अपनी जन्मभूमि को छोड़कर विदेश की धरती पर अपना जीवन गुजारने वाले बिहार के लोगों की लंबी सूची है। इसमें एक गिरमिटिया भी हैं। जानें इनकी कहानी।
पटना, जेएनएन। बिहार से लोगों के पलायन का सिलसिला कोई नई बात नहीं। ये सिलसिला सदियों से चलता आ रहा है, जो आज भी जारी है। रोजी-रोटी की तलाश में अपनी जन्मभूमि को छोड़कर विदेश की धरती पर अपना जीवन गुजारने वाले भारतीय और बिहार के लोगों की लंबी सूची है। वर्ष 1834 से 1918 के बीच ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा 10 लाख से अधिक भारतीय गिरमिटिया मजदूर बनाकर 19 विभिन्न उपनिवेशों के बागानों में भेजे गए, जिन्हें कुली कहा जाता था।
बनाई गई है 'डायस्पोरा' नामक कला दीर्घा
इन मजदूरों को जहाजों पर लादकर फिजी, मॉरीशस, कुली नगर, सेंट जेम्स, त्रिनिदाद आदि देशों में भेजा गया। ये लोग रोजी-रोटी के लिए अपनी मिट्टी को छोड़े, लेकिन अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाने का हर कदम पर प्रयास करते रहे। ऐसे ही गिरमिटिया मजदूरों की यादों को कहानी, चित्रों और फिल्मों के जरिए लोगों के दिलों में जिंदा रखने का प्रयास बिहार संग्रहालय बखूबी निभाने में लगा है। बिहार संग्रहालय परिसर में ऐसे ही बिहारियों को समर्पित 'डायस्पोरा' नामक कला दीर्घा बनायी गई है। यहां भोजपुर के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर की नाट्य लीला बिदेसिया के साथ उनके व्यक्तिगत जीवन की कई कहानियों को दीर्घा में लगी फिल्म के जरिए अनवरत पेश किया जाता है।
प्रवासी लोगों को दी गई बिदेसिया की संज्ञा
संग्रहालय में बने प्रवासी दीर्घा में प्रवेश करते ही आपको अपनी मिट्टी की याद ताजा हो जाएगी। दीर्घा के अंदर पुराने और बड़े आकर के वट वृक्ष और बिहार के पारंपरिक गीत-संगीत से जुड़े कई वाद्ययंत्रों को भी दीर्घा में रखा गया है। वही दूसरी ओर दीर्घा में टीवी स्क्रीन पर भिखारी ठाकुर के बिदेसिया नाटक के बहाने प्रवासी लोगों के दर्द को दिखाया जाता है। वही चित्रों के माध्यम से बिदेसिया गीत को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है। 'बिदेसिया' भोजपुरी का शब्द है। इसका प्रयोग अपना घर छोड़ने वाले प्रवासी और सुदूर देशों में रहने वाले लोगों के लिए किया जाता है।
चित्रों के जरिए दिखता प्रवासी मजदूरों का दर्द
दीर्घा में कई तस्वीरों को सलीके से रखा गया है। यहां कोलकाता जाकर कुली के तौर पर काम करने वाले बिहारियों को तस्वीर में प्रदर्शित किया गया है। चित्रों में ये मजदूर सिर पर टोकरी और गमछा रखे आधे कपड़े पहने दिखाई पड़ रहे हैं। विदेश जाने वाले गिरमिटिया मजदूरों से जुड़े प्रसंग भी तस्वीरों में दिखते हैं। चित्रों में साफ तौर पर दिखता है कि कुछ लोग अपनी मर्जी से दूसरे देश गए तो किसी को पैसे का लालच देकर ले जाया गया। इनमें अधिकांश लोग कभी अपने वतन को नहीं लौटे। बाहर जाने वाले लोगों ने अपनी धर्म और संस्कृति को कभी नहीं छोड़ा।
सूरिनाम की पत्रिकाओं में छपता प्रवासी मजदूरों की व्यथा
संग्रहालय में रखे दस्तावेज को देखने के बाद पता चलता है कि प्रवासी समुदायों ने अपने आम अनुभवों को कहानियों के रूप में प्रकाशित किया। सूरिनाम में हिंदी, भोजपुरी और मिश्रित यूरोपीय भाषाओं में पत्रिकाओं का प्रकाशन होता रहा। जिसमें सेतुबंध नाम का एक हिंदी संवादपत्र भी था। दूसरी ओर बिहार, उत्तरप्रदेश और छोटा नागपुर से आए पूर्वी भारत के करारबद्ध मजदूरों ने अपनी पारंपरिक वेशभूषा को कभी नहीं छोड़ा। गैलरी के बारे में जानकारी देते हुए संग्रहालय निदेशक दीपक आनंद ने कहा कि गैलरी निर्माण करने का मुख्य उद्देश्य लोगों को अपने पूर्वजों के बारे में जानने का मौका देना एवं उनकी वस्तुस्थिति को बयां करना है। ताकि संग्रहालय आने वाले लोग अधिक से अधिक अपने धरोहरों का समझ सकें।