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Bihar Chunav Results 2020: बिहार चुनाव में जिसने एक सीट भी नहीं जीती उसे भी जीत का एहसास

Bihar Chunav Results 2020 बिहार विधानसभा चुनाव का परिणाम एक मामले में अजूबा है। इसमें जिस पार्टी ने एक सीट जीती वह भी खुश जिसने पांच जीती या जिसने एक भी सीट नहीं जीती वह भी खुश है। क्‍योंकि हर पार्टी एक गुप्‍त एजेेंडा पर लड़ रही थी।

By Sumita JaiswalEdited By: Published: Wed, 11 Nov 2020 05:09 PM (IST)Updated: Wed, 11 Nov 2020 09:54 PM (IST)
Bihar Chunav Results 2020: बिहार चुनाव में जिसने एक सीट भी नहीं जीती उसे भी जीत का एहसास
सभी पार्टियों को हो रहा जीत का एहसास, सांकेतिक तस्‍वीर ।

पटना, अरुण अशेष। बिहार विधानसभा का परिणाम एक मामले में अजूबा है। इससे सभी दल खुश हैं। ऐसे दल भी जिन्हें एक सीट पर कामयाबी मिली। वह भी जिनका खाता तक नहीं खुला। चुनावी जंग में शामिल दलों के लक्ष्य अलग-अलग थे। कुछ दल सत्ता में आने के लिए लड़ रहे थे तो कुछ दलों का लक्ष्य दूसरेे को सत्ता में आने से रोकना था।

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लोजपा और भाजपा की यह रही खुशी

154 सीटों पर लडऩे वाली लोक जनशक्ति पार्टी ने अपना लक्ष्य घोषित किया था-मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सत्ता में आने से रोकना। फिलहाल उसका यह मूल लक्ष्य पूरा होता हुआ नजर नहीं आ रहा है। लेकिन, उसकी आंशिक कामयाबी यह है कि जदयू दूसरे से तीसरे नम्बर की पार्टी बन कर रह गई। पिछले विधानसभा में जदयू के 71 उम्मीदवार जीते थे। 2020 में यह संख्या महज 43 रह गई।

भाजपा के लिए सबसे खुशी की बात यह है कि वह विधानसभा में दूसरी बड़ी पार्टी बनकर उभरी। यह उपलब्धि उसे ठीक 20 साल बाद हासिल हुई। 2000 में उसके 67 उम्मीदवार जीते थे। उस समय भी वह दूसरे नम्बर की पार्टी थी। कई चुनावों में दूसरों के सहारेे जीतने वाली कांग्रेस के लिए परिणाम जरूर उम्मीदों के अनुरूप नहीं है। फिर भी उसे सुकून है कि आधार वोटों का समर्थन न मिलने के बावजूद वह 19 सीटें जीतने में कामयाब हुई। 2015 में कांग्रेस के 27 विधायक थे। राजद के अलावा जदयू के वोटरों का भी साथ मिला था। इससे पहले सिर्फ राजद के समर्थन से 2010 में उसकी जीत चार सीटों पर हुई थी। इस पृष्ठभूमि में ये 19 सीटें कांग्रेस को खुश होने का अवसर देती हैं।

जदयू का नारा बरकरार

जदयू के लिए खुशी की बात यह है कि उसका नारा-फिर से नीतीशे कुमार है, कायम रहा। उसकी सीटों में पिछले चुनाव की तुलना में 28 सीटों की कमी आई। फिर भी सरकार बनाने का अवसर मिलने के चलते उसका दर्द कुछ कम है। वैसे, चुनाव को संपूर्णता में देखें तो जदयू का मुकाबला सभी दलों से था। इसमें पराये तो थे ही, अपने भी थे।

वाम दलों को संजीवनी

वाम दलों के लिए तो परिणाम संजीवनी की तरह है। 1990 के विधानसभा चुनाव में इन्हें 41 सीटें मिली थीं। बाद के चुनावों में यह संख्या कम होती गई। 2010 में ऐसा भी समय आया जब बिहार विधानसभा में वामपंथ का कोई प्रतिनिधि नहीं रह गया था। 2015 में तीन सीटें मिलीं थी। वह अब बढ़कर 16 हो गई हैं।

तेजस्वी हुए स्थापित

राजद के तेजस्वी यादव का नेतृत्व जनता के बीच भी स्थापित हो गया। पिछली बार जब वे उप मुख्यमंत्री बने थे तो उसमें लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का योगदान था। बीच में विपक्ष के नेता का पद भी उन्हें 2015 के परिणाम पर ही मिला। लेकिन, विधानसभा चुनाव में मिले वोट और सीटों की संख्या को देखें तो तेजस्वी की कामयाबी जबरदस्त तरीके से नजर आती है। महागठबंधन जिस समय चुनाव मैदान में गया था, 2015 के नतीजे के आधार पर उसके विधायकों की संख्या 110 (राजद-80, कांग्रेस-27 और भाकपा माले-03) थी। यह संख्या बरकरार रही। साथ में यह आत्मविश्वास भी कि पिता लालू प्रसाद की गैर-हाजिरी में भी राजद का नेतृत्व कर सकते हैं। अपने आधार को जोड़े रख सकते हैं।

एमआइएमआइएम को मिला आधार

एआइएमआइएम को मिली पांच सीटें उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। सीमांचल में उसने खुद को अल्पसंख्यकों के कांग्रेस और राजद के विकल्प के तौर पर पेश किया था। इस वर्ग के लोगों ने बहुत हद तक उसे स्वीकार कर लिया। सबसे हार पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा की हुई। दोनों का खाता नहीं खुल पाया। फिर भी दोनों खुश हो सकते हैं कि उन्होंने कई सीटों पर जदयू और राजद की संभावनाओं को क्षीण कर दिया।


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