Bihar Chunav 2020: बिहार में शानदार प्रदर्शन के बाद अजेय नेता के रूप में पीएम मोदी का उभार
Bihar Chunav 2020 बिहार में बाजी जीतने और उपचुनावों में शानदार प्रदर्शन के बाद मोदी की आभा अजेय नेता के रूप में उभरी है। उनकी लोकप्रियता अप्रभावित है। कोरोना संकट से उपजे तमाम प्रतिकूल हालातों में भी उनकी छवि मजबूत हुई है।
नीरजा चौधरी। Bihar Assembly Election Result 2020 बटलोई का पूरा चावल पका है या नहीं, इसे जानने के लिए सिर्फ एक चावल ही काफी होता है। आज देश का समग्र सियासी मिजाज भांपना हो तो हालिया नतीजों की परत दर परत देख लें। जनता जनार्दन ने फैसला सुना दिया है। बिहार के साथ देश के 11 राज्यों की 59 विधानसभाओं के उपचुनाव नतीजे आ चुके हैं। इनका विश्लेषण हर कोई अपने तरीके से कर रहा है। जनता बहुत सयानी है। उसे अपना हित-अनहित पता है। उसे लोकतंत्र में विश्वास है।
वह जानती है कि जो उसके हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगा। इसीलिए संविधान ने उसे ब्रह्मास्त्र दिया है। अपने मताधिकार के इस्तेमाल से वह किसी को भी पल में आसमान पर बैठा सकती है और अगले ही पल नजर से उतार सकती है। मतदाता की नब्ज भांपना आसान नहीं है। बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित इसमें परास्त हो चुके हैं। नतीजों से पहले आए एक्जिट पोल ने इसकी पुष्टि भी कर दी। सभी वास्तविकता से बहुत दूर नजर आए। लेकिन इन चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों की जीत-हार का ट्रेंड एक बहुआयामी-दूरगामी तस्वीर पेश करता है।
बिहार में भाजपा की बल्ले-बल्ले रही तो मध्य प्रदेश के उपचुनावों के नतीजों ने शिव का राज और मजबूत किया। अन्य राज्यों में इस राजनीतिक पार्टी को मिली बढ़त कहीं न कहीं यह बताती है कि प्रधानमंत्री मोदी की छवि और मजबूत हुई है। उनके कामों, उनकी सरकार की नीतियों के चलते लोगों का भरोसा उनमें बढ़ा है। याद कीजिए, लॉकडाउन के वे दिन जब सड़कें पैदल जाते प्रवासियों से पटी थीं, इनमें से ज्यादातर लोग बिहार से ही थे। तमाम दुख-तकलीफ उठाते हुए वे अपने मंजिल तक पहुंचे। और इन्हीं लोगों ने प्रदेश में अन्य तमाम दलों पर भाजपा को तरजीह दी। ये तो सिर्फ एक चावल की बानगी है। इनकी फेहरिस्त लंबी है। अगले साल कई अहम राज्यों के चुनाव होने जा रहे हैं। इनमें पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुडुचेरी, केरल और असम शामिल हैं। ऐसे में इन चुनाव नतीजों का राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में निहितार्थ की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
बिहार चुनाव दो कारणों से अहम : रहा। एक, राजग हार के जबड़े से जीत छीनने में सफल रहा। खासकर कोरोना महामारी के कारण जबकि अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई हो और लोगों के सामने जीवनयापन का सवाल पैदा हो गया हो, तब सत्ताविरोधी लहर को धता बताने वाली यह जीत काफी मायने रखती है। 15 वर्षों से बिहार की सत्ता पर काबिज नीतीश कुमार के प्रति लोगों की नाराजगी को साफ महसूस किया जा सकता था और इसके कारण राजग के हाथों से बिहार का फिसलना तय माना जाने लगा था। अमेरिका में तो कोरोना के कारण ही राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। हालांकि, इसमें दो मत नहीं कि बिहार में मुकाबला कांटे का था। राजग के पास बहुमत से सिर्फ तीन सीटें ज्यादा हैं। राजग व महागठबंधन दोनों का मत प्रतिशत लगभग समान है। महागठबंधन महज 0.03 फीसद ही राजग से पीछे है। 3.1 करोड़ वोट में से दोनों के बीच महज 12,000 से कुछ ज्यादा मतों का ही अंतर है।
दूसरा सबसे अहम रहा राजनीति के क्षितिज पर तेजस्वी यादव का नेता के रूप में उभरना। बिहार में राजद ही नहीं, महागठबंधन के लिए भी अगली पीढ़ी का नेता तैयार हो गया है। दो महीने पहले जानकार मानते थे कि राजग बिहार चुनाव आसानी से जीत लेगा। लेकिन, जब तेजस्वी यादव की रैलियों में युवाओं की भीड़ उमड़ने लगी तब चीजें तेजी से बदलने लगीं। तेजस्वी ने युवाओं की नब्ज को पकड़ा और बेरोजगारी को सबसे अहम मुद्दा बनाते हुए सरकार पर हमला बोल दिया। हालांकि, इस हमले को निष्क्रिय करने में दो कारक सबसे प्रमुख रहे। इनमें सबसे अहम रहा पीएम मोदी का चुनाव प्रचार, जिनकी लोकप्रियता अब भी अप्रभावित है।
जिस नीतीश कुमार ने एक समय नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने से इन्कार कर दिया था, यहां तक कि लोकसभा चुनाव के दौरान भी जदयू व भाजपा में दूरी बनाए रखने की कोशिश की, वही इस बार पीएम मोदी के नाम पर वोट मांग रहे थे। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि बिहार का विकास कोई कर सकता है तो वह नरेंद्र मोदी हैं। बिहार चुनाव प्रचार में नया मोड़ दूसरे और तीसरे चरण में आया, जब पीएम मोदी ने ‘जंगलराज’ शब्द का प्रयोग करते हुए तेजस्वी को ‘जंगलराज का युवराज’ कह दिया। यह संदेश अति पिछड़ा वर्ग और महिलाओं के बीच तेजी से प्रसारित किया गया, जो तेजस्वी को नया लड़का समझते हुए उनमें बिहार का भविष्य देख रहे थे। परिणाम यह हुआ कि इन्होंने राजग में वापसी कर ली। वे लालू यादव व खासकर उनके तीसरे कार्यकाल के ‘यादव राज’ को याद करने लगे। बिहार की जीत ने जहां मोदी को और मजबूत किया है, वहीं कांग्रेस को और कमजोर बनाया है।
सीमांचल की पांच सीटों पर असदुद्दीन ओवैसी की एआइएमआइएम को मिली जीत ने महागठबंधन को काफी नुकसान पहुंचाया। कांग्रेस पर इसका दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। सीएए, एनआरसी, अयोध्या राम मंदिर फैसला, अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने जैसे प्रावधानों से चिंतित व खुद को असुरक्षित महसूस करने वाले मुसलमान कांग्रेस को मजबूत विकल्प के रूप में देख रहे थे। अगर मुसलमान ओवैसी की छोटी पार्टी पर भरोसा करने लगते हैं, बिहार में जिसकी दूर-दूर तक सरकार बनने की संभावना नहीं है तो यह न सिर्फ उनके मन के भटकाव, बल्कि कांग्रेस के प्रति अविश्वास को भी दर्शाता है। कांग्रेस खुद को कई तरह से गिरता हुआ महसूस कर सकती है। वह ऊंची जातियों के मत भी हासिल नहीं कर सकी, जो उसके पारंपरिक वोटर माने जाते हैं। बड़ी संख्या में लोग यह महसूस करने लगे हैं कि तेजस्वी को कांग्रेस को 70 सीटें नहीं देनी चाहिए थी। बेहतर होता कि इनमें से कुछ सीटें वामदलों को दी जातीं, जिनका प्रदर्शन बेहतर रहा है। इस चुनाव में मुकेश सहनी की पार्टी वीआइपी का भी प्रदर्शन बेहतर रहा है।
और अंत में...चिराग पासवान ने इस चुनाव में बड़ा प्रभाव छोड़ा। उन्होंने सबसे ज्यादा नीतीश कुमार को नुकसान पहुंचाया और उनकी पार्टी को गठबंधन में जूनियर पार्टनर के रूप में ला खड़ा कर दिया। चिराग ने राज्य सरकार और नीतीश कुमार के खिलाफ जमकर हमला बोला, जो भाजपा के लिए मददगार साबित हुआ। उन्होंने अपने समर्थकों से यहां तक कहा कि जहां लोजपा का प्रत्याशी नहीं, वहां भाजपा के पक्ष में वोट करें। हालांकि, बड़ा प्रभाव छोड़ने वाले चिराग को इस चुनाव में सिर्फ एक सीट हासिल हो पाई। उनकी पार्टी कमजोर साबित हुई और बिहार की राजनीति में जिसकी वह अपेक्षा करते थे उसे हासिल नहीं कर सके। संभव है कि भाजपा उन्हें केंद्र में भी रामविलास पासवान की जगह न दे, क्योंकि नीतीश कुमार इसका विरोध जरूर करेंगे।
बिहार चुनाव 2020 में एक और बिडंबना दिखी। नीतीश कुमार भले ही संख्या बल में कमजोर पड़ गए हों, लेकिन इससे उनकी स्थिति कतई कमजोर नहीं हुई है। भाजपा कुछ समय तक इस स्थिति में नहीं है कि नीतीश की जगह अपनी पार्टी के किसी नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी थमा दे। वह ऐसा खतरा मोल नहीं लेगी, क्योंकि नीतीश कुमार के पाला बदलने और बाहर से तेजस्वी को समर्थन देने की आशंका बनी रहेगी। आखिरकार नीतीश कुमार के ऐसे कई निर्णय रहे हैं, जिनके आधार पर उनके बारे में सटीक अंदाजा लगाना मुश्किल होता है। भाजपा इसलिए भी ऐसा नहीं करेगी, क्योंकि वह महाराष्ट्र में चोट खा चुकी है, जहां सरकार बनाने के लिए उद्धव ठाकरे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से निकलकर कांग्रेस व राकांपा के खेमे में शामिल हो चुके हैं।
[वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक]
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