Bihar Assembly Election: छोटे दलों में वजूद बचाए रखने की कसमसाहट, सता रहा कम सीटों का डर
Bihar Assembly Election एनडीए हो या महागठबंधन छोटे घटक दलों को विधानसभा चुनाव में कम सीटें मिलने का डर सता रहा है। इसे देखते हुए वे अपने पत्ते चलने लगे हैं।
पटना, अरुण अशेष। Bihar Assembly Election: छोटे दल बड़ी मुसीबत में फंस गए लगते हैं। इनके बड़े नेता कसमसा रहे हैं। मंझोले नेताओं में घबराहट है। बड़े नेताओं को तो कोई किनारा मिल ही जाएगा, ये बेचारे कहीं के नहीं रह जाएंगे। इन दलों की ताकत वही लोग हैं, जिनके मन में हर हाल में चुनाव लडऩे का हौसला रहता है। इन्हीं से जुड़े आम लोग इन दलों के समर्थक होते हैं। मजबूत दलों से तालमेल ही इनकी पूंजी होती है। अंदरखाने की बात करें तो हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (HAM) और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (RLSP) के पास बड़े दलों में विलय का प्रस्ताव भी है। एक बात जो सभी छोटे दलों के साथ लागू है, वह है सीटों की चिंता। उन्हें कम सीटें मिलने का डर सता रहा है।
मांझी को चाहिए अधिक सीटें, आरजेडी नहीं तैयार
2015 के विधानसभा चुनाव में 21 सीटों पर चुनाव लड़ चुके 'हम' को इस बार और अधिक सीटें चाहिए। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) इसके लिए तैयार नहीं है। जनता दल यूनाइटेड (JDU) तालमेल के बदले विलय की पेशकश कर रहा है। हिसाब यह है कि मोर्चा के नेता जीतन राम मांझी (Jitan Ram Manjhi) की अपनी सीट किसी न किसी सदन में सुरक्षित हो जाएगी। कुछ करीबी नेताओं का नियोजन हो जाएगा। साथ चल रहे बाकी लोग लटक जाएंगे।
मांझी को दोनों बड़े गठबंधनों के खट्टे अनुभव
मांझी को दोनों बड़े गठबंधनों के खट्टे अनुभव हैं। 2015 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के साथ थे। खुद दो क्षेत्रों से लड़े, जिनमें एक से हारे। लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election) में एनडीए का विरोधी महागठबंधन (Mahagathbandhan) भी उनके लिए फायदेमंद साबित नहीं हुआ। 'हम' के सभी तीन उम्मीदवार हार गए। लिहाजा, वे उस जेडीयू को आजमाना चाह रहे हैं, जिसने मुख्यमंत्री बनाकर उनका नाम इतिहास में दर्ज करवा दिया। हां, विलय की शर्त उन्हें हजम नहीं हो पा रही है।
कम सीट की आशंका से एलजेपी भी परेशान
कम सीट की आशंका से एलजेपी भी परेशान है। पार्टी के निर्माण में उम्मीदवारों की ही भूमिका रही है। सीटें कम हुईं तो उम्मीदवार खिसक जाएंगे। उन्हें रोकने के लिए ही नेतृत्व की ओर से अपने दम पर चुनाव लडऩे का विकल्प खुला रखने का भरोसा दिया जा रहा है।
पार्टी का शीर्ष नेतृत्व 2005 के फरवरी में हुए विधान सभा चुनाव का उदाहरण देता है। एलजेपी बिना तालमेल के 178 सीटों पर लड़ी, जिनमें 29 पर जीती। उसे 12.62 फीसद वोट मिले थे। यह उदाहरण नए उम्मीदवारों में जोश भरता है।
एलजेपी को सता रही ये आशंका
एलजेपी को एक और आशंका सता रही है। कहीं भारतीय जनता पार्टी (BJP) व जेडीयू की दोस्ती में उसकी हालत आरएलएसपी की तरह न हो जाए। जेडीयू से दोस्ती होने पर जब बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में आरएलएसपी को कम सीटों का ऑफर किया, तब वह एनडीए से अलग तो गई। इसके बावजूद लोकसभा चुनाव में वजूद नहीं बचा पाई।
कांग्रेस का आरएलएसपी को विलय का प्रस्ताव
कांग्रेस के पास आरएलएसपी के लिए भी विलय का प्रस्ताव है। पार्टी के नेता उपेंद्र कुशवाहा (Upendra Kushwaha) इस प्रस्ताव पर मनन कर रहे हैं। 'हम' और एलजेपी की तरह आरएलएसपी के पास किसी भी तरफ गमन का विकल्प नहीं है।
एनडीए से दूरी कुशवाहा की मजबूरी
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के कभी बेहद करीब रहे उपेंद्र कुशवाहा आज की तारीख में उस गठबंधन (Alliance) में नहीं जाएंगे, जिसका घोषित लक्ष्य नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री (CM) बनाना है। हालांकि, कल क्या समीकरण बनेगा, इसके बारे में दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। लेकिन आज की तारीख में नीतीश विरोधी गठबंधन में रहना उपेंद्र की मजबूरी है। अच्छी बात यह है कि उनके पास उम्मीदवारों की मजबूर करने वाली फौज नहीं है।