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Bihar Election: सीटों के लिए NDA व महागठबंधन दोनों में तकरार, सहयोगियों को ही कमजोर बता रहीं पार्टियां

Biha Assembly Election 2020 सीट शेयरिंग के मुद्दे पर दोनों गठबंधनों में तकरार मची है। दोनों गठबंधन के घटक दल अपने-अपने पक्ष में सहूलियत वाले तर्क दे रहे हैं।

By Amit AlokEdited By: Published: Fri, 18 Sep 2020 11:19 PM (IST)Updated: Fri, 18 Sep 2020 11:40 PM (IST)
Bihar Election: सीटों के लिए NDA व महागठबंधन दोनों में तकरार, सहयोगियों को ही कमजोर बता रहीं पार्टियां
Bihar Election: सीटों के लिए NDA व महागठबंधन दोनों में तकरार, सहयोगियों को ही कमजोर बता रहीं पार्टियां

पटना, अरुण अशेष। Bihar Assembly Election 2020: विधानसभा चुनाव के लिए बिहार में बन रहे दो बड़े गठबंधनों का दिलचस्प पहलू यह उभर कर सामने आया है कि इसमें शामिल दलों में अपने ही सहयोगियों को कमजोर बताने की होड़ मची हुई है। महागठबंधन (Grand Alliance) में जिन दलों को शामिल माना जा रहा है, वे खुद को मजबूत और सहयोगी को कमजोर बता रहे हैं। कांग्रेस (Congress) कह रही है कि राष्‍ट्रीय जनता दल (RJD) की तुलना में उसका जनाधार बढ़ गया है। उधर, राष्‍ट्रीय लोक समता पार्टी (RLSP) को मलाल है कि उसकी ताकत की कद्र ही नहीं हो रही है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) का भी वही हाल है। सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) कह रही है कि उसकी नजर में 15 साल से सत्ता का संचालन करने वाले जनता दल यूनाइटेड (JDU) का कोई खास जनाधार नहीं बचा है। एक बात और सामान्य है। वह है गठबंधन के भीतर की गुटबाजी।

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सीट शेयरिंग को ले परेशान दोनों गठबंधन

दोनों गठबंधन के नेताओं से बातचीत करें तो ऊपरी तौर पर यही कहेंगे कि सब ठीक है। समय पर आपस में सीटों का बंटवारा हो जाएगा। लेकिन निजी बातचीत में कहेंगे कि बड़ी परेशानी है। सभी दलों का अपना आकलन है कि उनका जनाधार अचानक बढ़ गया है। जनाधार कैसे बढ़ा? क्या लोकसभा चुनाव के बाद ऐसा कुछ हुआ है, जिसे आधार मानकर बढ़े हुए जनाधार का मूल्यांकन किया जाए? ऐसा कुछ नहीं है।

सभी दलों के पास सहूलियत वाले चुनावी आंकड़े

सभी दलों के पास सहूलियत वाले चुनावी आंकड़े हैं, जिनका इस्तेमाल वे खुद को असरदार बनाने के लिए कर रहे हैं। मसलन, एलजेपी के पास 2005 के फरवरी में हुए विधानसभा चुनाव का वह आंकड़ा है, जिसमें उसके 29 उम्मीदवार विधायक बन गए थे, लेकिन वह उसी साल अक्टूबर में हुए विधानसभा चुनाव के उस आंकड़े का जिक्र नहीं कर सकती, जिसमें उसके सिर्फ 10 उम्मीदवार जीते थे। आरएलएसपी को 2014 के लोकसभा चुनाव का वह परिणाम बहुत अच्छा लगता है, जब उसके सभी तीन उम्मीदवार चुनाव जीत गए थे। उसे 2015 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव का परिणाम याद नहीं रहता है, जब वह क्रमश: दो और शून्य पर सिमट गई थी। आरजेडी के साथ कांग्रेस भी अतीत के सुनहरे पन्ने को ही समझौते के वक्त खोल कर रखना चाहती है। यह हाल कमोवेश सभी दलों का है। जेडीयू भी 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणामों को याद नहीं रखना चाहता। भारतीय जनता पार्टी (BJP) को 2015 के विधानसभा चुनाव परिणाम की चर्चा से डर लगता है।

एक-दूसरे की कमजोर नब्ज दबाने की प्रवृत्ति

कुल मिलाकर दोनों गठबंधन में सीटों की सौदेबाजी के लिए एक-दूसरे की कमजोर नब्ज दबाने की प्रवृत्ति देखी जा रही है। दोस्ती के दावों के बीच छिपाकर धमकी भी कि अकेले लड़ने पर आपको क्या हासिल होगा। पहले भी देख चुके हैं। इस धमकी से पैदा होने वाला डर ही दोनों गठबंधन की एकता में सेतु का काम कर रहा है। यकीन भी दिला रहा है कि छोटे या बड़े दल अकेले चुनाव मैदान में नहीं जाएंगे। रोकर या गाकर गठबंधन होकर रहेगा।

अलग चुनाव लड़ने की भी बन रही रणनीति

एक रणनीति यह भी बन रही है कि क्यों नहीं कुछ दलों को अकेले चुनाव मैदान में भेज दिया जाए। ये दल मैदान में तलवार भाजेंगे, लेकिन चुनाव के बाद पहले वाले गठबंधन में शामिल हो जाएंगे। इस रणनीति के तहत एनडीए में एलजेपी और महागठबंधन में विकासशील इंसान पार्टी (VIP) को मैदान में भेजा जा सकता है। एलजेपी खुलेआम कह रही है कि वह उन सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी, जहां जेडीयू के उम्मीदवार होंगे। वीआइपी ने फिलहाल अपना पत्ता नहीं खोला है। दोनों गठबंधन के दल कुछ दलों का इस्तेमाल अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए भी कर रहे हैं। एलजेपी मनुहार कर रही है कि जेडीयू की तुलना में बीजेपी अधिक सीटों पर लड़े। महागठबंधन में कांग्रेस अब 80 सीटों की मांग कर रही है। इस मांग में तर्क है कि उसे अपने हिस्से में से आरएलएसपी को भी देना है।


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