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Bihar Politics: उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार का मिलन मामूली बात नहीं, इससे गिर सकता लालू का ग्राफ

रालोसपा के जदयू में एकाकार होने का असर बिहार की राजनीति में दूरगामी हो सकता है। नीतीश-कुशवाहा की दोस्ती से उर्वर हो सकती है लव-कुश की जमीन। क्‍योंकि उपेंद्र अकेले एक और नीतीश के साथ ग्‍हारह हो जाते हैं। इस लालू यादव के वोट बैंक का ग्राफ गिर सकता है।

By Sumita JaiswalEdited By: Published: Sun, 14 Mar 2021 08:54 PM (IST)Updated: Sun, 14 Mar 2021 09:44 PM (IST)
Bihar Politics: उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार का मिलन मामूली बात नहीं, इससे गिर सकता लालू का ग्राफ
उपेंद्र कुशवाहा और सीएम नीतीश कुमार । जागरण फोटो।

पटना, अरविंद शर्मा। उपेंद्र कुशवाहा आठ साल बाद सारे आग्रह-दुराग्रह को छोड़कर फिर से नीतीश कुमार के साथ खड़े हो गए हैं। इसे दो व्यक्तियों या दलों का मिलन बताकर हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। रालोसपा के जदयू में एकाकार हो जाने का असर दूरगामी हो सकता है। बिहार की राजनीति 2003 की कहानी दोहरा रही है, जब जदयू के साथ समता पार्टी का विलय हुआ था। नीतीश को शरद यादव का साथ मिला तो बिहार में राजग (NDA) की स्थायी सरकार बनी थी।

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लव-कुश बढ़ा, लालू का ग्राफ गिरा

17 साल बाद बिहार की फिर दो बड़ी हस्ती एक हुए हैं। अतीत गवाह है कि उपेंद्र कुशवाहा का नीतीश के कुनबे में जब-जब ओहदा बढ़ा है, बिहार की राजनीति में लव-कुश (कुर्मी-कुशवाहा का जातिगत समीकरण) का दखल बढ़ा है। हैसियत भी बढ़ी है और उसी अनुपात में नीतीश के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद का ग्राफ भी गिरा है। फिर ऐसा ही अंदाजा लगाया जा रहा है। इस जोड़ी से सियासत की एक धारा को नई ताकत मिलेगी तो दूसरी धारा उतनी ही क्षीण भी हो सकती है।

उपेंद्र एक से ग्‍यारह बन जाते

उपेंद्र कुशवाहा के व्यक्तिगत करिश्मे को राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार अपने तरीके से विश्लेषित करते हैं। उनके मुताबिक कुशवाहा जब अकेले होते हैं तो एक की हैसियत में होते हैं, मगर नीतीश कुमार से मिलकर ग्यारह की हैसियत में आ जाते हैं। 2005 और 2010 के विधानसभा चुनावों में जदयू के प्रदर्शन के स्केल से कुशवाहा की अहमियत को मापा जा सकता है। दोनों चुनावों में कुशवाहा और नीतीश साथ-साथ थे। परिणाम सबके सामने है।

दोनों के अलग होने के बाद का सफर भी छुपा हुआ नहीं है।

पुराने समीकरण की दमदार वापसी की उम्‍मीद

लोकदल के समय से ही नीतीश के हमराही रहे कुशवाहा पहली बार 2000 में समता पार्टी से विधायक बने थे। 2004 में नेता प्रतिपक्ष बने। ओहदा बढ़ा तो 2005 में नीतीश कुमार पूर्ण बहुमत से सरकार में आए। उसके बाद थोड़े समय के लिए राकांपा में चले गए। फिर 2009 में लौटे तो नीतीश ने उन्हें राज्यसभा भेजा और 2010 के विधानसभा चुनाव में फिर बड़ी जीत मिली। 2013 में दोनों के रास्ते फिर अलग-अलग हो गए, जिसका असर न कुशवाहा के लिए बढिय़ा रहा और न ही नीतीश के लिए। अबकी फिर एक हुए हैं तो पुराने समीकरण की दमदार वापसी का अंदाजा लगाया जाने लगा है। क्योंकि बिहार में विधानसभा की 25 से 30 सीटें ऐसी हैं, जहां लव-कुश समीकरण अपने दम पर उलट-पुलट करने की क्षमता रखता है। समस्तीपुर, वैशाली, मुजफ्फरपुर, शाहाबाद, सासाराम, जहानाबाद, अरवल एवं पटना ग्रामीण इलाके में यह जोड़ी कमाल कर सकती है।

दोनों को एक-दूसरे की जरूरत थी

उपेंद्र कुशवाहा का प्रभाव बिहार में जिस समुदाय के वोटरों पर है, उसकी तादाद करीब नौ फीसद है। यह लव-कुश समीकरण को मजबूती देता है। लालू प्रसाद के साये से अलग होकर नीतीश ने कुशवाहा के साथ इसी समीकरण को साधा था। मगर दोनों के रास्ते जब अलग हो गए तो नुकसान दोनों तरफ हुआ। 2014 के संसदीय चुनाव में तीन सीटेें जीतकर और केंद्र में मंत्री बनकर भी कुशवाहा चैन से नहीं रह पाए। पांच वर्ष पूरे करने के पहले ही भाजपा से यारी और केंद्र में भागीदारी खत्म हो गई। इस बीच जदयू का ग्राफ भी गिरता गया। भाजपा की बड़ी और जदयू की हैसियत छोटी होती गई। जाहिर है, दोनों अधूरे थे। अब पूरे होने की कवायद है।


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