ग्रामीण भारत की गर्मियों का शब्दचित्र, प्रख्यात लोकगायिका मालिनी अवस्थी की कलम से...
यह जेठ का महीना है जब दिन लंबे और रातें छोटी होने लगती हैं। पसीने की बूंदें अपनी सी लगने लगती हैं। आम की खुशबू से पेड़ गमकने लगते हैं पके बेल रस छोड़ने लगते हैं। यही वे दिन हैं जब जामुनों से लदे पेड़ अपनी ओर बुलाने लगते हैं
मालिनी अवस्थी। जाड़ों में सूतो भलो, बैठो बरखा काल/गरमी में उभौ खड़ो, चोखी करै सुकाल।’ बचपन में यह कहावत सुनती थी, लेकिन इसके अर्थ उम्र के साथ गाढ़े हुए। ताऊ जी समझाते हुए बताते, ‘द्वितीया का चंद्रमा यदि जाड़े के समय में शांत तथा वर्षाकाल में एक स्थान पर बैठा हो और गर्मी में तेज हो, तो समय बहुत अच्छा व्यतीत होता है।’ सच तो है, ग्रीष्मकाल में चंद्रमा उगने की प्रतीक्षा रहती है। तपती धरा को शीतलता जो मिलती है चंद्रमा से। भारत ऋतुओं का देश है। छह ऋतुएं मानी गई हैं और हर ऋतु का वैशिष्ट्य है, अपना ही आनंद है। हम विषुवत रेखा के निकट हैं, अत: भारत स्वभावत: गर्म देश है। इस समय जेठ का महीना चल रहा है, लिहाजा हम प्रचंड गर्मी का सामना कर रहे हैं।
बाट जोहता मानव मन: आज सुविधाभोगी जीवन है, एसी-कूलर का आदी मनुष्य गर्मी के मौसम का आनंद ही नहीं उठा पाता। जी हां, सही पढ़ा आपने। गर्मी का अपना ही मजा है। जेठ के महीने की झुलसती धूप की तपिश अगर आप नहीं महसूस करेंगे तो आषाढ़ के बादल और सावन की रिमझिम नाद तरंग का आनंद भी भला कैसे ले सकेंगे। कहावत भी है- ‘जितनै तपी उतनै बरसी’ अर्थात, जितनी अधिक गर्मी होगी, उतनी ही अधिक वर्षा होगी। कजरी झूला का उत्सव इसी राहत और आनंद का उत्सव है। वर्षा का आनंद प्रकृति की कठोर ऊष्मा का प्रसाद है। वैशाख-जेठ के तपते महीने मानव मन के धीरज की परीक्षा भी हैं, लेकिन यह मानव मन है, इसे कहां ठौर! यह वर्षपर्यंत मौसम के बदलाव की बाट जोहता रहता है। ठिठुरती ठंड के बाद गुनगुने वसंत का स्वागत करते हुए, चैत का आनंद उठाते ही बाट जोहने लगता है वैशाख और जेठ महीने की।
प्रकृति ने दी है हर काट: गर्मी की आहट आते ही खान-पान, मूड-मन-मिजाज और मौसम सब बदल जाता है। सुबह की सैर मन को भाने लगती है। तारों की छांव में रात को बाहर खटिया बिछाकर सोना मन को सुहाने लगता है। दिन लंबे और रातें छोटी होने लगती हैं। पसीने की बूंदें कितनी अपनी सी लगने लगती हैं। आम की खुशबू से पेड़ गमकने लगते हैं, पके बेल रस छोड़ने लगते हैं, जामुनों से लदे पेड़ अपनी ओर बुलाने लगते हैं, फालसे का रंग और स्वाद जुबान पर चटकने लगता है। नींबू और पुदीने से अपना जायका बढ़ाता हुआ गन्ने का रस अपनी ओर खींचने लगता है। कुम्हार की चाक पर बने सौंधी मिट्टी के घड़े लुभाने लगते हैं, घरों में शर्बत छनने लगते हैं। घर में जितना भी बने, आम-पुदीने का पना कम ही पड़ता है। सच तो यह है कि प्रकृति में ही हर समस्या का हल छिपा है। भीषण गर्मी की काट भी इस मौसम की रसदार सब्जियों और फलों में छिपी है। इस मौसम में तरल रसदार तरबूज, खरबूजे और खीरा, ककड़ी किसे नहीं भाते। ये न सिर्फ मौसम की तपिश को कम करते हैं बल्कि शरीर में जल की मात्रा भी बनाए रखते हैं। सत्तू चाहे नमक से खाओ और चाहे गुड़-चीनी से, नियमित खा लिया तो फिर लू नहीं लग सकती। गर्मी की बसोढ़ा अष्टमी यानी बसेवरा का स्वाद तो भाई वही जाने जिसने इसे जीमा हो। एक दिन बासी पूरी कद्दू और घुइयां की सब्जी के साथ खा लो तो शाही भोजन फेल।
शादी और उत्सवों का मौसम: उत्तर भारत में पुरानी परंपरा रही है कि जनेऊ-ब्याह आदि सभी मांगलिक अवसर गर्मी में अधिक पड़ते हैं। शायद इसलिए क्योंकि गेहूं-दलहन की फसल कटने के बाद किसान को चैन मिलता है। चार पैसे आते हैं। उसकी कमाई होती है सो यह समय पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन के लिए सबसे अच्छा माना गया है। गर्मियों में ब्याह-शादी के जलसे सबने देखे हैं। मौसम मेहरबान नहीं होता, लेकिन उत्सव की गर्मी मई-जून की गर्मी पर भारी पड़ती। गांवों में गर्मी की बरातें आज भी गजब रौनक लगाती हैं। पसीने से भीगे बरातियों को बड़े वाले फर्राटा पंखों के सामने जब खस का शरबत पेश होता है तो बराती की धज निराली हो जाती है। नई पीढ़ी ने तो वे शादियां ही नहीं देखीं जब गर्मियों में पूरी बरात दो-दो दिन आम के बगीचे में खटिया बिछाकर पड़ जाती। वहीं बाटी बनती और वहीं गाना बजाना चलता-‘दूल्हे का सेहरा बेला चमेली से सजता है।’ एक सेहरा गीत में दूल्हे के माथे का तिलक पसीने से कैसे बह रहा है, यह पूरा चित्र सजीव हो उठा है -‘बेला चमेली का गमकै सेहरा/चुवन लागे तिलकवा रे सेहरा।’
यादों में रतजगे वाले गीत
गर्मी में ऐसे ब्याह के चित्र बहुतों को अब भी याद होंगे। गर्मी की छुट्टियों और ननिहाल की सोंधी महक का रिश्ता इतना मधुर होता है कि जिसने इसे जिया, वे स्मृतियां उसके चेहरे पर हंसी ले ही आती हैं। गर्मियां ही तो थीं जो बच्चों की मां को उसके बाबुल के पास ले जातीं। हफ्ते-15 दिनों की इन छुट्टियों की प्रतीक्षा हर स्त्री बड़ी ललक से करती। बचपन की शरारतों और खेलने के उत्साह में गर्मी कहां लगती। छत पर खुले आसमान के नीचे किस्से-कहानियां सुनते हुए सोना और आम की डालियों से पके आम तोड़कर खाना। एक समय था जब गांव में गर्मियों की ठंडी भोर खुले में सोनेवालों को नरम-नरम भागलपुरी चादर ओढ़ने को विवश कर देती। जिन्होंने उस सुबह और उस चादर का सुख उठाया है, बिजली से चलने वाला एसी उन्हें कभी संतुष्ट नहीं कर सकता। गर्मियों की शादियों के रतजगे में एक गीत खूब बजता था- ‘राजा गरमी के मारे चुनरिया भीजै हमारी।’ सिर ढांके हुए पसीने से लथपथ सजी-धजी बहुएं चूड़ियां खनकाती हुई इस गीत पर नाचतीं। यह दृश्य मेरे मन में ऐसे कैद है कि आज भी इस गीत को गाते हुए मैं मानसिक रूप से हमेशा जेठ महीने की तपती लू से व्याकुल नायिका की कल्पना करती हूं। हमारे पुरखों ने गीत रचते हुए तात्कालिक प्रकृति-परिवेश का सदा ध्यान रखा वरना ऐसे सुंदर गीत कहां सुनने को मिलते? अनगिनत चौमासों और बारहमासा गीतों में विरह व्याकुल पत्नी की प्रेम अभिव्यक्ति में वैशाख और जेठ के महीने का रोचक वर्णन मिलता है। -‘गवनवा लई ना गये मोरे राजा/चार महीना ले गरमी पड़त है/ टप टप चुवै पसिनवा मोरे राजा।’
इतिहास बने पंखे
एक और गीत में पति को निकट बुलाती नायिका कहती है कि गर्मी का मौसम तो चार महीने रहता है, लेकिन तुम आओ तो हाथ में बेनिया यानी पंखे से तुम्हें हवा करूंगी -‘ चले आओ राजा, ललक गौने की। चार महीना राजा गरमी पड़त है/हाथे बेनिया बयरिया नेबुल की।’ नई पीढ़ी में कितनों ने हाथ का पंखा देखा होगा...। इनवर्टर के जमाने में अब हाथ के पंखे देखने को नहीं मिलते। एक धोबिया गीत है जिसमें विरहिणी पत्नी हर ऋतु का वर्णन करते हुए पति से आने की गुहार लगाते हुए कहती है -‘झूला द बलमा हमके अचरा के छइयां झूला द बलमा/चार महीना पड़े गरमी के दिनवा /धरती अकास जरे बहे ना पवनवा/तनि अंखिया से अंखिया मिलाला बलमा।’ वास्तव में जेठ की गर्मी में धरती आकाश सब जलता हुआ सा ही प्रतीत होता है।
परंपराओं में छिपा लोककल्याण
ऐसे में स्नेही की प्रेम भरी चितवन भी शीतलता प्रदान करती है। गर्म मौसम के प्रकोप में असली शीतलता मिलती है जल से, स्नान से। गांव में ट्यूबवेल में, पोखर, नदी में स्नान का अनुभव ही अलग है। चलती हुई नहर में नहाना भी तृप्ति देता। क्या यह संयोग है कि इसी तपते जेठ के महीने में गंगा दशहरा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। हर साल ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को गंगा दशहरा मनाया जाता है। मान्यता है कि इसी दिन मां गंगा का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था। इस दिन गंगा स्नान के बाद सत्तू, हाथ का पंखा और मटका दान करने की परंपरा है। हमारे पूर्वज कितने मनीषी थे, उन्होंने पर्व-त्योहार के बहाने लोककल्याण का भाव जाग्रत रखा।