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वाम दलों का प्रत्याशी नहीं,कार्यकर्ता उठाएंगे गठबंधन दलों का झंडा

सीमावर्ती गया नालंदा शेखपुरा व जमुई जिलों का हाल नवादा जैसा -------------------- जासं नवाद

By JagranEdited By: Published: Fri, 09 Oct 2020 08:47 PM (IST)Updated: Sat, 10 Oct 2020 05:09 AM (IST)
वाम दलों का प्रत्याशी नहीं,कार्यकर्ता उठाएंगे गठबंधन दलों  का झंडा
वाम दलों का प्रत्याशी नहीं,कार्यकर्ता उठाएंगे गठबंधन दलों का झंडा

सीमावर्ती गया, नालंदा, शेखपुरा व जमुई जिलों का हाल नवादा जैसा

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जासं, नवादा : लंबे अंतराल के बाद लाल झंडा का शोर इस चुनाव में नवादा जिले में सुनने को नहीं मिलेगा। इस बार लेफ्ट की सभी प्रमुख पार्टियों के महागठबंधन का हिस्सा हो जाने के कारण ऐसी स्थिति बनी है। नवादा जिले के साथ ही सीमावर्ती गया, नालंदा, शेखपुरा व जमुई जिलों में कोई प्रत्याशी वाम दलों के नहीं हैं। इन जिलों में वाम कार्यकर्ताओं की भूमिका गठबंधन दलों के सहयोगी के रूप में होगी। ग्रास रूट पर काम करने वाली इन पार्टियों के कार्यकर्ता गठबंधन दलों के अधिकृत प्रत्याशियों के लिए मैदान में उतर गए हैं। इन पांच जिलों में कुल 28 विधानसभा की सीटें है।

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गत चुनाव में सभी सीटों पर थे उम्मीदवार

- पिछले चुनाव यानि 2015 में नवादा जिले की सभी पांच सीटों पर लेफ्ट के उम्मीदवार थे। वारिसलीगंज से सीपीआइ के राम किशोर शर्मा, हिसुआ से सीपीएम के नरेश चंद्र शर्मा, रजौली से सीपीआइएमल के विनय पासवान, नवादा से सीपीआइएमएल की सावित्री देवी और गोविदपुर से सीपीआइ के राम कृष्ण महतो उम्मीदवार थे। अर्थात दो-दो सीटों पर सीपीआइ व सीपीआइएमल तथा एक सीट पर सीपीएम के उम्मदवार चुनावी मैदान में थे। किसी को कामयाबी नहीं मिली थी।

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अंतिम बार 1990 में फहरा था लाल झंडा

- विधानसभा के चुनावी इतिहास में नवादा जिले में कभी लाल झंडा विपक्ष का बड़ा मंच हुआ करता था। जिले के प्राय: क्षेत्रों में इन पार्टियों की पैठ रही थी। हालांकि चुनावी सफलता सिर्फ वारिसलीगंज व नवादा की सीटों पर मिलती थी। अंतिम बार 1990 के चुनाव में सीपीआइ के देवनंदन प्रसाद वारिसलीगंज से जीते थे। इस सीट से 1967 व 69 में सीपीआइ के देवनंदन प्रसाद का जीत मिली थी। जबकि 1977 व 80 में सीपीएम के गणेश शंकर विद्यार्थी नवादा से जीते थे। हिसुआ सीट पर भी सीपीएम का दबदबा रहा था। लेकिन, जीत दूर रही थी। लाल नारायण सिंह यहां से कई दफा नजदीकी मुकाबले में पिछड़ते थे। उनके बारे में कहावत थी, उलट के देखो रामायण-कभी न जीता लाल नारायण। 1990 के दशक के बाद मंडल-कमंडल का दौर चला और लाल झंडा का दायरा सिमटता चला गया। संगठन अब भी सभी दलों का है, लेकिन जनता के बीच लोकप्रियता में कमी।


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