सीतामढ़ी में सामा चकेवा के गीतों से गुलजार हो रही गांव की गलियां, छोटे-छोटे बच्चों में काफी उत्साह
पूर्णिमा के दिन पूरी निष्ठा विधि-विधान व भरे दिल से लोग सामा की विदाई करते हैं। वैसे बदलते समय के साथ समाज में कई पुरानी परंपराएं विलुप्त होती जा रही है लेकिन कुछ ऐसी लोक परंपराएं हैं जो आज भी समाज में जीवित है।
सीतामढ़ी, जेएनएन। सामचक-सामचक अइहऽ हे... जैसे गीत गानों से शहर समेत गांव की गलियां इन दिनों शाम ढ़लते ही गुलजार हो जाती है। कार्तिक शुक्ल षष्ठी से पूर्णिमा तक चलने वाले इस नौ दिवसीय पर्व में भाई-बहन का अपार स्नेह झलकती है। पूर्णिमा के दिन पूरी निष्ठा, विधि-विधान व भरे दिल से लोग सामा की विदाई करते हैं। वैसे बदलते समय के साथ समाज में कई पुरानी परंपराएं विलुप्त होती जा रही है, लेकिन कुछ ऐसी लोक परंपराएं हैं, जो आज भी समाज में जीवित है। आस्था का महापर्व छठ संपन्न होते ही घरों में सामा-चकेवा के गीत सुनाई पड़ने लगे हैं। इधर, जैसे-जैसे विदाई के दिन नजदीक आ रहे है वैसे-वैसे शहर से लेकर ग्रामीण इलाके मे सामा-चकेवा के गीतों से शाम गूंजने लगती है। खासकर छोटे-छोटे बच्चों में इस लोकपर्व को लेकर काफी उत्साह दिखता है। महिलाएं सामा-चकेवा से फिर अगले वर्ष आने का आग्रह करती हैं और गीत गाते हुए कहती हैं, 'साम-चक साम-चक अबिह हे...।
समा चकेवा जैसे पारंपरिक लोकगीत हो रहे विलुप्त
आज आधुनिकता की दौर व पश्चिमी सभ्यता के चकाचौंध में लोककला व संस्कृति दम तोड़ रही है। डीजे-डिस्को के दौर में झिझिया, जट-जटिन व समा चकेवा जैसे पारंपरिक लोकगीत विलुप्त हो रहे हैं। दशहरा-दीपावली व छठ पर्व के मौके पर ये लोकगीत सुनाई पड़ते थे। अब गांव-कस्बों में झाल-करताल, ढोल-मजीरे की तन-मन को झंकृत करती थाप और उसपर गाया जाने वाला लोकगीत की गूंज विरले ही सुनाई पड़ते हैं। बिहार खासकर मिथिलांचल में लोकगीत, संगीत, जीवन दर्शन, मंगल-अमंगल, प्रेम-करूणा, राग-द्वेष से उपजी झंझावतों की कहानी उन्हीं लोक गीत व नृत्य में देखी जा सकती थी। राग, वियोग व मिलन की अप्रतिम काव्य कला की धारा अविरल बहती रसधारा सुनाई देती रहती थी। लोकगीत हमारी परंपरा व संस्कृति की जीवंत उदाहरण हुआ करती थी। कीर्तन व भजन तुलसी, कबीर, सूरदास, रहीम आदि कवियों के पद, दोहे, चौपाई से शुरू होते थे। शास्त्रीय संगीत व कत्थक नृत्य जो संगीत की आत्मा है उससे हम दिन पर दिन दूर होते चले जा रहे हैं।