डीजे-डिस्को के दौर में झिझिया, जट-जटिन व समा चकेवा जैसे पारंपरिक लोकगीत हो रहे विलुप्त
भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीीक है सामा-चकेवा द्वापर युग से चली आ रही परंपरा। कार्तिक पूर्णिमा के दिन बेटी की विदाई जैसी डोली सजाकर सामा चकेवा का होता विसर्जन। शास्त्रीय संगीत व कत्थक नृत्य संगीत की आत्मा है उससे हम दिन पर दिन दूर होते चले जा रहे हैं।
सीतामढ़ी, [चंद्रकिशोर सक्सेना]। बिहार की विशेष पहचान लोककला, लोकगीत, लोकनृत्य व सांस्कृतिक विकास के कारण है। भाषा, पहनावा, रहन-सहन, हाव भाव आदि की विविधता के बावजूद अनेकता में एकता की खूबसूरत मिसाल अपनी संस्कृति में ही देखने को मिलती है और यह संभव हो सका है लोककलाओं के माध्यम से। दूसरी ओर आज विडंबना यह है कि जहां, बिहार के लोग झिझिया नाच, जाट जटिन, विदेशिया नाच, सामा चकेवा, अल्हा-उदल, सोहर, चैती, झूमर, ठुमरी, कजरी, आदि लोकगीत व नृत्य करके बिहार की धरती की मिट्टी की सोंधी महक बिखेरते थे।
लोककला व संस्कृति दम तोड़ रही
आज आधुनिकता की दौर व पश्चिमी सभ्यता के चकाचौंध में लोककला व संस्कृति दम तोड़ रही है। डीजे-डिस्को के दौर में झिझिया, जट-जटिन व समा चकेवा जैसे पारंपरिक लोकगीत विलुप्त हो रहे हैं। दशहरा-दीपावली व छठ पर्व के मौके पर ये लोकगीत सुनाई पड़ते थे। अब गांव-कस्बों में झाल-करताल, ढोल-मजीरे की तन-मन को झंकृत करती थाप और उसपर गाया जाने वाला लोकगीत की गूंज विरले ही सुनाई पड़ते हैं। बिहार खासकर मिथिलांचल में लोकगीत, संगीत, जीवन दर्शन, मंगल-अमंगल, प्रेम-करूणा, राग-द्वेष से उपजी झंझावतों की कहानी उन्हीं लोक गीत व नृत्य में देखी जा सकती थी। राग, वियोग व मिलन की अप्रतिम काव्य कला की धारा अविरल बहती रसधारा सुनाई देती रहती थी। लोकगीत हमारी परंपरा व संस्कृति की जीवंत उदाहरण हुआ करती थी। कीर्तन व भजन तुलसी, कबीर, सूरदास, रहीम आदि कवियों के पद, दोहे, चौपाई से शुरू होते थे। शास्त्रीय संगीत व कत्थक नृत्य जो संगीत की आत्मा है उससे हम दिन पर दिन दूर होते चले जा रहे हैं।
ऐसे खेला जाता सामा चकेवा
लोक आस्था का महापर्व छठ के खरना की रात से ही भाई-बहन के अटूट प्रेम के प्रतीक सामा चकेवा शुरू है। कार्तिक पूर्णिमा के दिन इसका समापन होगा। बहनें अपने भाईयों को नए धान के चूड़ा के साथ दही खिलाकर समापन करती हैं। शाम होते ही बहनों का समूह सार्वजनिक स्थान पर डाला में सामा चकेवा को सजाकर गीत वृदांवन में आग लगले.सामा चकेवा खेल गेलीय हे बहिना, चुगला करे चुगलपन, बिलाई करै म्याउ, ध के ला चुगला के फांसी द आउ आदि प्रमुख हैं। इसके माध्यम से हंसी-ठिठोली भी की जाती है। बहनें भाई के दीर्घायु होने की कामना करती हैं। यह परंपरा द्वापर युग से चली आ रही है। बहनें सामा चकेवा, सतभइया, खड़रीच, चुगिला, वृंदावन, चौकीदार, झाझीकुकुर, साम्य आदि की प्रतिमा बनाती हैं। गीत के बाद बनावटी वृंदावन में आग लगाती हैं। चुगला संठी से निर्मित को गालियां देते हुए उसकी दाढ़ी में आग लगाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा के दिन बेटी की विदाई जैसी डोली सजा कर सामा चकेवा का विसर्जन किया जाता है।
यह है पौराणिक कथा
पौराणिकता एवं लौकिकता के इस लोकपर्व की कहानी कुछ यूं है। आचार्य पंडित विजयकांत झा, कुटेश्वर झा ने बताया कि भगवान श्रीकृष्ण की पुत्री श्यामा और पुत्र शाम्भ के बीच अपार स्नेह था। कृष्ण की पुत्री श्यामा, ऋषि कुमार चारूदत्त से ब्याही गई थीं। श्यामा, ऋषि मुनियों की सेवा करने बराबर उनके आश्रमों में जाया करती थीं। भगवान श्रीकृष्ण के मंत्री चुरक को यह रास नहीं आया। श्यामा के खिलाफ साजिश रची। कुछ ऐसी शिकायत की जिससे क्रोधित होकर भगवान श्रीकृष्ण ने श्याम को पक्षी बन जाने का श्राप दिया। श्यामा के पति चारूदत्त ने भगवान महादेव की पूजा करके प्रसन्न कर लिया और स्वयं भी पक्षी का रूप धारण कर लिया। श्रीकृष्ण के पुत्र शाम्भ ने अपने बहन-बहनोई की दशा देखकर पिता की आराधना प्रारंभ की। मानव रूप में पाने का वरदान मांगा। भगवान श्रीकृष्ण ने श्राप मुक्ति के लिए श्यामा सामा और चारूदत्त रूपी चकेवा की मूर्ति बनाकर उनके गीत गाए और चुरक की कारगुजारी को उजागर करें तो दोनों फिर से अपने रूप में आ जाएंगे। उसके बाद से यह त्योहार मनाया जाता है। बहन श्यामा ने वृंदावन में घर-घर जाकर महिलाओं से आग्रह किया कि जो बहनें मिट्टी से समा चकेवा बनाकर चौक-चौराहों व खलियान पर खरना की रात से कार्तिक पूर्णिमा तक खेलेंगी उनके भाई की लंबी आयु होगी। उसी दिन से बहनों व माताओं ने समा चकेवा का खेल आरंभ किया।