विलुप्त होती जा रही बहुरूपियों की परंपरा, बचाने की जद्दोजहद में मधुबनी के गिने-चुने कलाकार
गली-मोहल्लों में बहुरूपियों को देखकर कभी लोग खुशी से झूम उठते थे। अब इंटरनेट के मनोरंजन की आदी होती जा रही पीढ़ी धीरे-धीरे इन्हें नोटिस लेना छोड़ रही। परिणामस्वरूप यह कला मिट रही।
मधुबनी, [प्रदीप मंडल] । आज के आधुनिक युग में जब दुनिया इंटरनेट के माध्यम से मनोरंजन में व्यस्त है, ऐसे में पुरानी परंपराओं व कलाओं के पोषकों को उन्हें जीवित बनाए रखना काफी कठिन हो रहा है। मनोरंजन के लिए पहले के जमाने में लोग कठपुतलियों के नाच सहित विभिन्न पौराणिक कलाओं का सहारा लेते थे। इन्हींं में से एक नाम बहुरूपिया कला का भी आता है। लेकिन अब इन बहुरूपिया कलाकारों की संख्या सिमटती जा रही है। हालांकि आज भी जब कोई कलाकार बहुरूपिया बनकर गलियों में घूमता है तो उसे देख लोग आह्लादित हो उठतेे हैं।
अब कभी-कभार ही दिखते बहुरूपिये
पूर्व के समय में काफी प्रचलन में रही इस कला को अब प्रदर्शित करने वाले कलाकार स्थानीय स्तर पर दूर-दूर तक नजर नहीं आते हैं। अब तो दूसरे राज्य के कलाकार कभी-कभार किसी गांव में चले आए तो वे अपनी कला का प्रदर्शन कर लोगों का मनोरंजन करते हैं।
वे 10 से 12 दिन किसी गांव में रुकते हैं और हर दिन अलग अलग वेष बनाकर बहुरूपिया कला का प्रदर्शन करते हैं। इसके बदले में स्थानीय लोगों के माध्यम से उन्हेंं जो कुछ भी पारितोषिक के रूप में प्राप्त होता है वह बगैर हील-हुज्जत अपनी आजीविका चलाने के लिए रख लेते हैं।
हर वर्ष राजस्थान से आते हैं सरिसव पाही
बहुरूपिया कला में माहिर राजस्थान के जयपुर निवासी इकबाल बहुरूपिया लगातार 15 वर्षों से मधुबनी जिले के सरिसव पाही आते हैं। उनके पूर्वज भी इसी कला के सहारे अपना जीवन-यापन करते थे। वर्तमान में उनके दो भाई इस कला का प्रदर्शन विभिन्न राज्यों में घूम-घूम कर करते हैं। इनके भाई राजू बहुरूपिया व मामा सुबराती बहुरूपिया देश-विदेश में अपनी कला का जौहर दिखा चुके हैं। हर वर्ष वे किराये का मकान ले लगातार 12 दिन तक अलग-अलग वेष बनाते हैं। कभी पागल, जिन्न, भगवान, तो कभी किसी महापुरूष सहित विभिन्न व्यक्तित्व का रूप धारण कर लोगों का मनोरंजन करते हैं और चले जाते हैं। उनके इस कला को देखने के लिए सबसे ज्यादा बच्चों की भीड़ जुटती है।
विलुप्त होती जा रही कला
सदियों से प्रसिद्ध इस कला का दुर्भाग्य यह है कि आज के जमाने में इसका महत्व घटता चला जा रहा है। लोगों की अनदेखी के कारण अब बात बहुरूपियों को पेट भरना मुश्किल पड़ रहा है। राजू बहुरूपिया बताते हैं कि हमारी पहचान इसी कला से है। पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन यही कला रही है। लेकिन, आज की कथित मॉडर्न पीढ़ी इस कला को करना या देखना उतना पसंद नहीं करती जितनी की यह हकदार है।
आगे उन्होंने कहा कि सरकार की ओर से विलुप्त होती जा रही इस कला की ओर कोई ध्यान नहीं है। लोगों से भी अब ज्यादा प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है। लॉकडाउन से पहले जिले के फुलपरास, संग्राम व नरहैया में कला दिखा सुपौल स्थित अपने वर्तमान आवास पर बीवी-बच्चों के पास चला गया था। पिछले तीन महीने में भोजन की समस्या उत्पन्न हो गई तो अनलॉक में फिर से निकल पड़ा हूं। अब इस काम से परिवार का गुजर-बसर करना मुश्किल हो गया है। यदि ऐसा ही रहा तो जल्द ही यह बहुरूपिया कला विलुप्त हो जाएगी।