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नहीं मिली सरकारी मदद, अब ये वापस जाना चाहते हैंं म्यांमार

गृहयुद्ध के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री की पहल पर 1974 में आए थे बेतिया, आश्वासन के बाद भी पुनर्वास नहीं होने से सरकारी सुविधाओं से वंचित।

By Ajit KumarEdited By: Published: Sun, 18 Nov 2018 11:22 AM (IST)Updated: Sun, 18 Nov 2018 11:22 AM (IST)
नहीं मिली सरकारी मदद, अब ये वापस जाना चाहते हैंं म्यांमार
नहीं मिली सरकारी मदद, अब ये वापस जाना चाहते हैंं म्यांमार

बेतिया, [मनोज कुमार मिश्र। पश्चिमी चंपारण जिला मुख्यालय स्थित वार्ड नंबर दो पश्चिम हजारी शरणार्थी कैंप। यहां म्यांमार के 16 हिंदू परिवार 44 साल से शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं। वहां गृहयुद्ध के कारण सबकुछ छोड़ भारत आए थे। सरकार ने उन्हें बसने और खेती के लिए जमीन देने का आश्वासन दिया था, जो आज तक पूरा नहीं हो सका। सरकार की तरफ से मदद नहीं मिलने के कारण अब ये म्यांमार वापस जाना चाहते हैं। 

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शिविर में सुविधाओं का अभाव

म्यांमार मेंगृहयुद्ध और स्थानीय निवासियों की ओर से परेशान करने के कारण बहुत से ङ्क्षहदुओं ने देश छोड़ा था। वर्ष 1974 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहल पर सैकड़ों शरणार्थियों को बेतिया व अन्य जगहों पर लाया गया था। इनमें से 16 परिवारों के करीब 100 लोग हजारी कैंप में बसाए गए थे। कैंप में रह रहे जयनाथ चौहान, हीरालाल चौहान, विजय कुमार, हरि नारायण, दशरथ चौहान, रामप्रवेश, लालमोहन चौहान, गिरजा प्रसाद, कलावती देवी और धनवंती देवी ने बताया कि वे लोग म्यांमार के टांगो जिला अंतर्गत जियाबाड़ी के रहने वाले हैं।

   भारत सरकार ने उन्हें खेती के लिए जमीन, आवास और अन्य सरकारी लाभ देने का आश्वासन दिया था। बहुत से लोग स्वर्ग सिधार गए। बचे लोग पुनर्वास के लिए आज भी भटक रहे हैं। शिविर में शौचालय और बिजली के अलावा अन्य कोई सुविधा नहीं है। आज भी उनके पुनर्वास के कागजात सरकारी फाइलों में घूम रहे हैं। सरकार अगर सुविधा नहीं दे सकती तो म्यामांर भेज दे।

आरा के मूल निवासी, देशप्रेम खींच लाया

शरणार्थियों का दावा है उनके पूर्वज मूलत बिहार के आरा के रहने वाले थे। अंग्रेजी शासन के दौरान अंग्रेज उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) ले गए थे। कालांतर में वे वहीं बस गए। अपनी मेहनत की बदौलत वहां काफी धन-संपदा अर्जित की। कई जमींदार बन गए। सैकड़ों एकड़ जमीन और बाग-बगीचे थे। इन लोगों का कहना है कि अब लगता है कि भारत आकर गलती की। उनके कई संबंधी नहीं आए। आज वे वहां शान-ओ-शौकत की जिंदगी जी रहे हैं।

   कैंप में रहने वाले कई शरणार्थी रिक्शा और ठेला चलाते हैं। कुछ पेट भरने के लिए मजदूरी करते हैं। अधिकतर राजमिस्त्री के साथ लेबर का काम करते हैं। कुछ लोग पेट भरने के लिए भीख मांगने पर भी मजबूर हैं।

बेतिया के भूमि सुधार उप समाहर्ता सुधांशु शेखर ने कहा कि शरणार्थियों को पूर्व में खाली जमीन पर पुनर्वास की सुविधा दी जा रही थी, लेकिन वे दूसरी जगह जाने को तैयार नहीं हुए। इस कारण पुनर्वास नहीं हो सका। अगर वे दूसरी जगह जाने को तैयार हों तो निश्चित रूप से पुनर्वास की सुविधा दी जाएगी।


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