1934 की भूकंप त्रासदी में राजेंद्र बाबू के साथ गांधी जी, चाचा नेहरू व राहुल सांकृत्यायन आए थे सीतामढ़ी
वर्ष 1934 के प्रलयकांरी भूकंप में सीतामढी़ का दर्द बांटने युगपुरुष महात्मा गांधी राष्ट्र के नायक डॉ. राजेंद्र प्रसाद पं. जवाहरलाल नेहरू और राहुल सांकृत्यायन आए थे। सीतामढ़ी शहर के विभिन्न इलाकों में घूम-घूमकर भूकंप पीड़िताें का दर्द बांटा था।
सीतामढ़ी, जेएनएन। वर्ष 1934 के प्रलयकांरी भूकंप में सीतामढी़ का दर्द बांटने युगपुरुष महात्मा गांधी, राष्ट्र के नायक डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पं. जवाहरलाल नेहरू और राहुल सांकृत्यायन आए थे। देशरत्न के साथ बापू कई दिनों तक रहे थे। सीतामढ़ी शहर के विभिन्न इलाकों में घूम-घूमकर भूकंप पीड़िताें का दर्द बांटा था। नेहरू जी तुरंत चले गए थे। हिंदी यात्रासहित्य के पितामह राहुल सांकृत्यायन तो यहां कई दिनों तक ठहरे थे। आधुनिक काल में वे अपनी यात्राओं के लिए जाने जाते हैं। महंत राजीव रंजन दास, बेनीपुरीजी के नाती एक प्रसंग साझा करते हुए कहते हैं कि पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने मित्र मगर विपक्ष के बेनीपुरी जी के बुलावे पर जनार में बागमती काॅलेज के शिलान्यास में आना स्वीकार किया। उस समय के कांग्रेसियों को यह नागवार गुजरा। बहुत कोशिश की गई कि राजेंद्र बाबू की यात्रा टल जाए।
मगर, राजेंद्र बाबू अडिग रहे। इसी बीच बेनीपुरी जी को पक्षाघात हो गया और कांग्रेसियों को एक मौका और मिल गया कि अब राजेंद्र बाबू को बेनीपुर जाने से रोका जाए। इनके पास राज्य सरकार ने खबर भेजी कि बेनीपुरी अस्वस्थ हो गए और कार्यक्रम स्थगित समझा जाए। राजेंद्र बाबू को अपने मित्र की अस्वस्थता की जानकारी मिली कि बेनीपुरी बीमार बारन, हम जरूर जाएब। राजेंद्र बाबू नियत समय पर बेनीपुरी जी के कार्यक्रम में गए और बेनीपुरी जी को भी खटिया पर लिटा कर समारोह स्थल पर लाया गया और दोनों मित्र एक दूसरे के गले मिले तो लोगों की जयकार से आसमान गूंज उठा।
सीतामढ़ी के प्रख्यात इतिहासविद् रामशरण अग्रवाल बताते हैं कि ऐसे महान हस्ती थे राजेंद्र बाबू।मित्र के लिए प्रोटोकाॅल की कोई भी परवाह नहीं, मित्र तो मित्र है। राजनीती बाद में अपनी जगह। क्या आज ऐसा संभव है। यह तो सर्वविदित है कि गुजरात स्थित ऐतिहासिक सोमनाथ मंदिर के लोकार्पण के पूर्व की पूजा में सम्मिलित होने का फैसला दबावों के बाद भी नहीं बदला। शायद इसकी नींव 1917 में ही पड़ गई थी जब उन्होंने वकालत का वैभव त्याग कर बिहार में ही चंपारण्य सत्याग्रह में गांधी जी का सहायक होना अंगीकार किया था। और आजीवन कर्म और भावना से गांधी के अनुयायी रहे, सत्ता की चमक दमक उनको कुप्रभावित नहीं कर सकी।
देशरत्न राजेंद्र बाबू आजादी की लड़ाई के समर्पित सेनानी थे। लेकिन, हिंदी साहित्य सम्मेलनों में उत्साह से भाग लेते थे। अंग्रेजी भाषा के ज्ञाता होने बाद भी हिंदी और भोजपुरी में बात करने का मौका चूक नहीं सकते थे। अध्ययनशील रूझान के कारण साहित्य के मर्म को बखूबी समझते थे। और साहित्यकार के प्रति उनकी संवेदनशीलता के अनेक उदाहरण हैं। उपरोक्त बेनीपुरीजी से जुड़ा प्रसंग राजेंद्र बाबू के साहसिक आत्म विश्वास से उपजा उनके व्यक्तितव का महान मानवीय पक्ष है।