देश-विदेश तक हुई जांच, इस 'अज्ञात' बीमारी के आगे बेबस बनी सरकार
बिहार के मुजफ्फरपुर क्षेत्र में गर्मियों में एक अज्ञात बीमारी बच्चों को निगलने लगती है। बुखार आने के साथ बच्चे बेसुध हो जाते हैं। फिर वे दम तोड़ देते हैं।
By Ravi RanjanEdited By: Published: Wed, 16 May 2018 11:04 AM (IST)Updated: Thu, 17 May 2018 09:11 AM (IST)
style="text-align: justify;">मुजफ्फरपुर [प्रेमशंकर मिश्र]। बिहार के मुजफ्फरपुर क्षेत्र में हर साल गर्मियों में एक अज्ञात बीमारी बच्चों को निगलने लगती है। बुखार आने के साथ बच्चे बेसुध हो जाते और जांच व उचित चिकित्सा के पहले ही दम तोड़ देते हैं। केंद्र व राज्य सरकार के स्तर पर पुणे और दिल्ली के अलावा अमेरिका के अटलांटा में पीडि़त बच्चों के खून व नमूनों की जांच कराई गई, मगर बीमारी के कारणों का पता नहीं चला। नमूनों में कोई वायरस या सूक्ष्मजीवी नहीं मिला। बीमारी अज्ञात ही रह गई। हां, बारिश शुरू होते ही बीमारी खुद-ब-खुद गायब हो जाती है।
इस बीमारी से हर साल मौत के आंकड़े भयावह होते हैं। साल 2012 में इससे यहां सर्वाधिक 120 मौतें हुईं थीं। इस साल भी गर्मी के आने के साथ एक मौत हो चुकी है।
1990 से शुरू हुआ सिलसिला
मुजफ्फरपुर में 1990 से यह सिलसिला शुरू हुआ। 2010 में स्थिति गंभीर हुई तो डाटा रखने का काम शुरू हुआ। अब तो हर साल मई आते ही स्वास्थ्य विभाग अलर्ट हो जाता है। माताओं को भय सताने लगता है। बीमारी का पता लगाने के लिए एनसीडीसी (राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र) नई दिल्ली और एनआइवी (राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान) के विशेषज्ञों ने जांच की, लेकिन किसी वायरस का पता नहीं चला। सीडीसी (सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रीवेंशन), अटलांटा में भी पीडि़त बच्चों के खून व अन्य नमूनों की जांच कराई गई, मगर कारणों का पता नहीं चल सका।
स्वास्थ्य मंत्री ने दिया था कामचलाऊ नाम
नौनिहालों की मौत की चीत्कार दिल्ली पहुंची तो तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन जून, 2014 में यहां आए। विशेषज्ञों से विमर्श के बाद उन्होंने इस बीमारी को कामचलाऊ नाम एईएस (एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) दिया। पीडि़त बच्चों का इलाज लक्षणों पर आधारित कर दिया गया। इंसेफेलाइटिस से मिलते-जुलते लक्षण को लेकर इसे एईएस कहा गया, लेकिन इसका कोई एकरूप इलाज तय नहीं किया जा सका। अब भी अलग-अलग तरीके से इलाज हो रहा है।
स्थानीय अस्पताल में शिशु रोग विभागाध्यक्ष डॉ. ब्रजमोहन कहते हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देश पर इलाज का प्रोटोकॉल बना। हालांकि पीडि़त बच्चों में हाइपोग्लाइसेमिया के लक्षण मिलने से अब ग्लूकोज व सोडियम की मात्रा नियंत्रित करने पर काम हो रहा है। डॉ ब्रजमोहन ने बताया कि कुछ बच्चों में हाइपोग्लाइसेमिया पाया जा रहा है, जिसमें शरीर में शुगर का लेवल कम हो जाता है, लेकिन अब तक किसी भी पीडि़त में इंसेफेलाइटिस का वायरस नहीं मिला। बहरहाल, अप्रैल से जून माह में होने वाली यह बीमारी अब भी अज्ञात बनी हुई है।
जांच के नाम पर करोड़ों खर्च
बीमारी के असली कारण तक पहुंचने के लिए जांच के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए और किए जा रहे हैं। मगर, ठोस नतीजा नहीं आया। साख बचाने के लिए एजेंसियां अंधेरे में तीर चला विवाद को जन्म दे रही हैं। कभी लीची को बीमारी का कारण माना गया। कभी टॉक्सिन और अब जंक फूड की बात कही जा रही है। हर साल एक नया शिगूफा सामने आ जाता है। बीमारी के कारणों में अब गांव, गरीबी व गर्मी को भी शामिल कर लिया गया है।
स्वास्थ्य मंत्री ने कही ये बात
सूबे के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय कहते हैं कि बिहार सरकार बच्चों की बीमारी व उसके कारण को लेकर भारत सरकार व बड़ी एजेंसियां जांच कर रही हैं। अब तक कारण का पता नहीं चल सका है। फिलहाल इस बीमारी को लेकर स्वास्थ्य विभाग सचेत है। संंबंधित चिकित्सकों व अधिकारियों को रोकथाम के लिए निर्देशित किया गया है।
लक्ष्ण के आधार पर होता इलाज
मुजफ्फरपुर के सिविल सर्जन डॉ. ललिता सिंह के अनुसार अब तक के रिसर्च में मृत बच्चों में किसी तरह के वायरस नहीं मिले हैं। बीमारी के कारण का पता नहीं चल पाया है। लिहाजा लक्षण के आधार पर ही इलाज होता रहा है।
इस बीमारी से हर साल मौत के आंकड़े भयावह होते हैं। साल 2012 में इससे यहां सर्वाधिक 120 मौतें हुईं थीं। इस साल भी गर्मी के आने के साथ एक मौत हो चुकी है।
1990 से शुरू हुआ सिलसिला
मुजफ्फरपुर में 1990 से यह सिलसिला शुरू हुआ। 2010 में स्थिति गंभीर हुई तो डाटा रखने का काम शुरू हुआ। अब तो हर साल मई आते ही स्वास्थ्य विभाग अलर्ट हो जाता है। माताओं को भय सताने लगता है। बीमारी का पता लगाने के लिए एनसीडीसी (राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र) नई दिल्ली और एनआइवी (राष्ट्रीय विषाणु विज्ञान संस्थान) के विशेषज्ञों ने जांच की, लेकिन किसी वायरस का पता नहीं चला। सीडीसी (सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रीवेंशन), अटलांटा में भी पीडि़त बच्चों के खून व अन्य नमूनों की जांच कराई गई, मगर कारणों का पता नहीं चल सका।
स्वास्थ्य मंत्री ने दिया था कामचलाऊ नाम
नौनिहालों की मौत की चीत्कार दिल्ली पहुंची तो तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन जून, 2014 में यहां आए। विशेषज्ञों से विमर्श के बाद उन्होंने इस बीमारी को कामचलाऊ नाम एईएस (एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) दिया। पीडि़त बच्चों का इलाज लक्षणों पर आधारित कर दिया गया। इंसेफेलाइटिस से मिलते-जुलते लक्षण को लेकर इसे एईएस कहा गया, लेकिन इसका कोई एकरूप इलाज तय नहीं किया जा सका। अब भी अलग-अलग तरीके से इलाज हो रहा है।
स्थानीय अस्पताल में शिशु रोग विभागाध्यक्ष डॉ. ब्रजमोहन कहते हैं कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देश पर इलाज का प्रोटोकॉल बना। हालांकि पीडि़त बच्चों में हाइपोग्लाइसेमिया के लक्षण मिलने से अब ग्लूकोज व सोडियम की मात्रा नियंत्रित करने पर काम हो रहा है। डॉ ब्रजमोहन ने बताया कि कुछ बच्चों में हाइपोग्लाइसेमिया पाया जा रहा है, जिसमें शरीर में शुगर का लेवल कम हो जाता है, लेकिन अब तक किसी भी पीडि़त में इंसेफेलाइटिस का वायरस नहीं मिला। बहरहाल, अप्रैल से जून माह में होने वाली यह बीमारी अब भी अज्ञात बनी हुई है।
जांच के नाम पर करोड़ों खर्च
बीमारी के असली कारण तक पहुंचने के लिए जांच के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए और किए जा रहे हैं। मगर, ठोस नतीजा नहीं आया। साख बचाने के लिए एजेंसियां अंधेरे में तीर चला विवाद को जन्म दे रही हैं। कभी लीची को बीमारी का कारण माना गया। कभी टॉक्सिन और अब जंक फूड की बात कही जा रही है। हर साल एक नया शिगूफा सामने आ जाता है। बीमारी के कारणों में अब गांव, गरीबी व गर्मी को भी शामिल कर लिया गया है।
स्वास्थ्य मंत्री ने कही ये बात
सूबे के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय कहते हैं कि बिहार सरकार बच्चों की बीमारी व उसके कारण को लेकर भारत सरकार व बड़ी एजेंसियां जांच कर रही हैं। अब तक कारण का पता नहीं चल सका है। फिलहाल इस बीमारी को लेकर स्वास्थ्य विभाग सचेत है। संंबंधित चिकित्सकों व अधिकारियों को रोकथाम के लिए निर्देशित किया गया है।
लक्ष्ण के आधार पर होता इलाज
मुजफ्फरपुर के सिविल सर्जन डॉ. ललिता सिंह के अनुसार अब तक के रिसर्च में मृत बच्चों में किसी तरह के वायरस नहीं मिले हैं। बीमारी के कारण का पता नहीं चल पाया है। लिहाजा लक्षण के आधार पर ही इलाज होता रहा है।
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