पश्चिम चंपारण के वैज्ञानिकों का दावा, गाजर घास से फसलों की पैदावार में होती 40 फीसद की कमी
कृषि वैज्ञानिक ने बताया कि इसका उन्मूलन जरूरी होता है क्योंकि यह तेजी से फैलता है। जहां अधिक फैलाव हो उस क्षेत्र में इसे उपयोगी बनाया जा सकता है। रेल लाइन सड़क के किनारे खेतों की मेड़ों पर और अन्यत्र उगने वाली गाजर घास को कंपोस्ट बनाया जा सकता है।
पश्चिम चंपारण, [प्रभात मिश्र]। यदि मवेशियों के लिए चारा, फसलों में खरपतवार की निराई करने और जलावन के उद्देश्य से गाजर घास निकालने का प्रयास करते हैं तो इसमें सावधानी रखने की जरूरत है। दिखने में सामान्य तौर पर गाजर की तरह पत्तियों लिए हरे भरे ये शाकीय पौधे रोगों की वजह बन रहे हैं, जिसे सामान्य तौर पर उसके संपर्क में आने वाले लोग नहीं समझ पाते। मानव में एग्जिमा, बुखार, डर्मेटाइटिस, एलर्जी, दमा जैसी बीमारियां होती हैं। पशुओं के लिए यह घास अधिक हानिकारक है। पशु जब इस घास को खाते हैं तो कई प्रकार के रोग पैदा हो जाते हैं। दुधारू पशुओं के दूध में कड़वाहट के साथ-साथ दूध उत्पादन में कमी आने लगती है। इस खरपतवार द्वारा खाद्यान्न फसलों की पैदावार में लगभग 40 फीसद तक कमी पायी गई है। कृषि वैज्ञानिक डॉ आरपी सिंह ने बताया कि इसमें सेस्क्युटरपिन लैक्टोन नामक विषाक्त पदार्थ पाया जाता है, जो फसलों के अंकुरण एवं वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। वैसे यह अधिकतर तिलहनी फसलों, सब्जियों, दलहनी फसलों एवं उद्यान फसलों में दिखते हैं। ऐसे में इस घास को सावधानीपूर्वक उखाड़ने की जरूरत है। उखाड़ते समय हाथ में दस्तानों तथा सुरक्षात्मक कपड़ों एवं मुंह तथा नाक को मास्क से ढकना चाहिए।
तेजी से फैलने वाले इस खरपतवार का उन्मूलन जरूरी
कृषि वैज्ञानिक ने बताया कि इसका उन्मूलन जरूरी होता है क्योंकि यह तेजी से फैलता है। जहां अधिक फैलाव हो उस क्षेत्र में इसे उपयोगी बनाया जा सकता है। रेल लाइन, सड़क के किनारे, खेतों की मेड़ों पर और अन्यत्र उगने वाली गाजर घास को कंपोस्ट बनाया जा सकता है। इसमें नेत्रजन, पोटैशियम और फास्फोरस जैसे तत्व गोबर खाद से अधिक पाए जाते हैं। इतना ही नहीं झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले लोग इसे इंधन के रूप में उपयोग कर सकते हैं। गाजर घास के पौधे की लुगदी से कंपोस्ट तैयार करने में मदद मिलेगी। बायोगैस उत्पादन में इसको गोबर के साथ मिलाने से उर्जा में वृद्धि होगी।
गेहूूं के साथ अमेरिका व कनाडा से आ गए थे इसके बीज
वैसे तो गाजरघास का वैज्ञानिक नाम पार्थेनियम हिस्टोफोरस है। इसे कांग्रेस घास, सफेद टोपी, छनतक चांदनी, गधी बूटी आदि नामों से भी जाना जाता है। देश में इसका प्रवेश अमेरिका व कनाडा से आयात किए गए गेहूं के साथ हुआ। जो कम समय में ही फैल गई। इस एक वर्षीय शाकीय पौधे की लंबाई एक से डेढ़ मीटर तक होती है। इसकी पत्तियां गाजर की पत्ती की तरह होती हैं। प्रत्येक पौधा लगभग दस हजार से पच्चीस हजार अत्यंत सूक्ष्म बीज पैदा कर सकता है। बीजों में सुषुप्ता अवस्था नहीं होने के कारण वे जमीन पर गिर जाते हैं और नमी पाकर पुनः अंकुरित हो जाते हैं। ये तीन से चार महीने में अपना जीवन चक्र पूरा कर लेते हैं। वर्ष भर उगता एवं फलता फूलता रहता है। हर तरह के वातावरण में उगने की अभूतपूर्व क्षमता होती है।