कैमूर के ये प्रवासी दिल्ली से लेकर आए स्ट्रॉबेरी की खेती
प्रवासी शरीर लेकर ही नहीं लौटते अपने साथ जानकारी अनुभव व कौशल का अथाह भंडार भी लेक
प्रवासी शरीर लेकर ही नहीं लौटते, अपने साथ जानकारी, अनुभव व कौशल का अथाह भंडार भी लेकर आते हैं। यदि उनका सही इस्तेमाल किया जाए तो प्रदेश के गांवों में विकास की नई इबारत लिखी जा सकती है। कैमूर के सकरी गांव में स्ट्रॉबेरी उगाने वाले किसानों ने इसका बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है। भभुआ प्रखंड के ओदार गांव के बबलू मौर्या भी दो वर्ष पहले प्रवासी ही थे, जो रोजगार की तलाश में अन्य प्रांतों में भटका करते थे। उसी दौरान उन्होंने दिल्ली में स्ट्रॉबेरी की खेती देखी और उसकी तकनीक को कैमूर में लेकर आए। वे बताते हैं कि दिल्ली में पहली बार जब खेतों में नई तरह की फसल देखी तो उनके मन में कौतूहल जगा। किसान से फसल का नाम पूछा तो उसने स्ट्रॉबेरी बताया। उन्होंने किसान से खरीद कर फल चखा तो स्वाद अच्छा लगा। उसके बाद उन्होंने उस फल की खेती की तकनीक को कैमूर के गांवों तक ले आने की ठान ली। उन्होंने कुदरा प्रखंड के सकरी गांव में अपने दोस्त अनिल सिंह के साथ मिलकर जिले में पहली बार स्ट्रॉबेरी की खेती की। आरंभ में समीप के जिले औरंगाबाद के चिल्कीबीघा गांव से एक किसान के यहां से कुछ पौधे लाए और उन्हें खेतों में लगाया। फसल अच्छी हुई तो पिछले वर्ष महाराष्ट्र के पुणे से पौधे मंगवा कर सकरी गांव में करीब एक एकड़ जमीन में इसकी खेती की। बबलू मौर्या व अनिल सिंह बताते हैं कि स्ट्रॉबेरी की खेती धान व गेहूं की परंपरागत खेती से अलग है। हालांकि इसमें मुनाफा भी अधिक है। एक एकड़ में करीब पांच लाख रुपए की लागत आती है, लेकिन कमोबेश तीन लाख रुपये का मुनाफा भी हो जाता है। फसल सितंबर में लगाई जाती है जो अप्रैल तक फल देती है। फल को सावधानीपूर्वक चुन कर प्लास्टिक के छोटे-छोटे डिब्बों में पैक कर शहरी बाजारों में भेजना होता है। बबलू व अनिल के लिए खेती की नई राह आसान नहीं थी। उन्हें खेतों में मल्चिग और ड्रिप सिचाई जैसी नई प्रविधियों की व्यवस्था करनी पड़ी। वे कहते हैं कि उन्हें इस बात की सबसे अधिक खुशी है कि खेत की कमाई से अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा दे सकेंगे।