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अपने दर्द से जाना पराए की पीड़ा, सेवा को बनाया धर्म

जमुई। बचपन से कुशाग्र बुद्धि और पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहने के कारण स्वजन को उन पर नाज था तो उम्मीद थी कि एक दिन ये बुलंदियों को छुएगा लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था।

By JagranEdited By: Published: Tue, 11 Aug 2020 07:18 PM (IST)Updated: Tue, 11 Aug 2020 07:18 PM (IST)
अपने दर्द से जाना पराए की पीड़ा, सेवा को बनाया धर्म
अपने दर्द से जाना पराए की पीड़ा, सेवा को बनाया धर्म

जमुई। बचपन से कुशाग्र बुद्धि और पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहने के कारण स्वजन को उन पर नाज था, तो उम्मीद थी कि एक दिन ये बुलंदियों को छुएगा, लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था। छठवीं कक्षा की बात है गुरुजी कुछ लिखा रहे थे और अयोध्या प्रसाद तेजी से लिख रहे थे कि तभी उनकी अंगुली ने काम करना बंद कर दिया। वह अचंभित होकर गुरुजी और सहपाठियों का मुंह देखने लगे। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। लाख प्रयत्न के बाद भी कलम पकड़ने वाली अंगुली निष्क्रिय बनी रही।

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स्कूल की छुट्टी के बाद उदास मन से घरवालों को यह बात बताई। चिकित्सक से दिखाया गया। चिकित्सक ने ऐसा रोग बताया कि उसकी पूरी जिदगी बदल गई। चिकित्सक ने बताया कि उसे कुष्ठ हो गया। यह सुन अयोध्या फूट-फूटकर रो पड़े। इतना बताते ही मलयपुर बलवारे टोला निवासी अयोध्या प्रसाद की मुद्रा गंभीर हो गई तो आंसू छलक आए। अयोध्या प्रसाद ने बताया कि उस दिन मैं खूब रोया। मेरे सपने टूट गए थे। दो सेकेंड की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा कि मेरे रोने का वह आखिरी दिन था। उसके बाद मैं अपनी बीमारी को लेकर कभी नहीं रोया। धीरे-धीरे मेरी अंगुली गल गई, मगर मेरे आंखों से आंसू नहीं बहे। नवादा जिले के कौआकोल स्थित कपस्या और महाराष्ट स्थित बरधा में चिकित्सा और शिक्षा प्राप्त की। ठीक होने के बाद वापस गांव आकर समाज सेवा में जुट गए। अपने दर्द ने उन्हें दूसरे की पीड़ा का एहसास करा दिया और कुष्ठ रोगियों की सेवा को धर्म मानकर उसकी सेवा में लग गए। अयोध्या प्रसाद ने बताया कि कुष्ठ रोगियों की सेवा के साथ उसके जख्म पर पट्टी बांधने से लेकर चिकित्सकों से दिखाने का दायित्व निभाते हैं। इसमें न जात देखते है न धर्म। इसके अलावा वंचित समूह के बच्चों को निश्शुल्क शिक्षा देते हैं। उन्होंने बताया कि कुष्ठ रोगियों को समाज अच्छी नजर से नहीं देखता है। इससे वे अवगत थे। इसलिए कुष्ठ रोगियों को सेवा के साथ-साथ भावनात्मक, आत्मीयता का सहारा देकर उनका मनोबल बढ़ाते रहे। अब तक दो दर्जन से अधिक कुष्ठ रोगियों की उन्होंने सेवा की। उन्होंने कहा कि समाज में कोई अछूत नहीं है। रोग से बचाव होना चाहिए न की रोगियों से। कुष्ठ पीड़ितों को शारीरिक के साथ-साथ मानसिक पीड़ा भी सहनी पड़ती है।


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