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बिहार में हाशिए पर पड़ी ये आबादी, दस्तावेजों में दर्ज 'मुसहर' आज भी खा रहे चूहे

यह नए भारत की तस्वीर नहीं है। यह दशकों से व्यवस्था का दंश झेलते समुदाय की मजबूरी है। हम बात कर रहे हैं उस मुसहर जाति की, जो आज भी चूहे खाकर गुजारा कर रहे हैं। आइए डालते हैं नजर।

By Amit AlokEdited By: Published: Sun, 15 Jul 2018 09:16 AM (IST)Updated: Sun, 15 Jul 2018 09:28 PM (IST)
बिहार में हाशिए पर पड़ी ये आबादी, दस्तावेजों में दर्ज 'मुसहर' आज भी खा रहे चूहे
बिहार में हाशिए पर पड़ी ये आबादी, दस्तावेजों में दर्ज 'मुसहर' आज भी खा रहे चूहे

गया [अश्विनी]। नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूंजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से...। स्वामी विवेकांनद की परिकल्पना में भविष्य के भारत की थी यह तस्वीर। लेकिन...  उन सपनों का एक सच आज भी यही है कि इंसान चूहे (मूसा) खा रहा है और सामाजिक व्यवस्था ने उसे नाम दिया मुसहर। यह जाति खेतों में, जंगलों में, पहाड़ों में चूहे ढूंढती मिल जाएगी। यह नए भारत की तस्वीर नहीं। दशकों से व्यवस्था का दंश झेलता वह समुदाय है, जिसने कभी मजबूरी में इसे आहार बनाया होगा और आज भी सरकारी दस्तावेजों में कहीं-न-कहीं उसी के नाम पर उसकी जाति दर्ज है।

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अंदर है एक छटपटाहट
हां! बदलाव का यह मंजर जरूर कि उसके अंदर एक छटपटाहट भी है, इससे बाहर निकलने की। स्वाभिमान और सम्मान की तड़प, जो शायद नए भारत के सपने को सच करने की कूवत रखती हो। इसकी एक बानगी भी। बिहार के गया जिले के गहलौर में भोला मांझी से बात करने पर वे कहते हैं-'हम चूहा खाते हैं, पर हम मुसहर नहीं। मुसहर दूसरा है...हम लोग उससे ऊपर हैं...।'
सामाजिक संरचना में यह 'कास्टलाइन' बहुत कुछ बता जाती है। सामाजिक सोच में यहां भी 'बंटवारा।' यह समाज के सबसे निचले पायदान का व्यक्ति बता रहा है, जबकि गरीबी और मजबूरी से लेकर खान-पान में सब एक ही राह के राही। वैसे, बिहार में ये सभी महादलित की श्रेणी में हैं।

दशकों का है यह दंश
इनके अंदर इस घेरे से निकलने की जो तड़प दिख रही है, इसके लिए व्यवस्था को जी-जान से जुटना होगा। यह कितना हो पा रहा है, आगे की कडिय़ों में यह भी बताएंगे, जो उसके सामाजिक-आर्थिक व शैक्षणिक परिवेश की बहुत ही धीमी रफ्तार का सुबूत देता है। यह हाल-फिलहाल का नहीं, दशकों का दंश है।
मुसहर! बिहार से लेकर झारखंड, उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल और नेपाल की तराई में भी पाई जाने वाली एक जाति। वैसे, बिहार में विभिन्न जगहों पर अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं। गया के जिला कल्याण पदाधिकारी सुरेश राम बताते हैं कि उत्तर बिहार में मांझी मल्लाह का टाइटल है। मगध क्षेत्र में मांझी को भुइंया बोलते हैं। मुसहर उपजाति है, जिसकी श्रेणी में ये सभी आते हैं। यह नाम क्यों? इस सवाल पर कहते हैं-सरकारी दस्तावेज में यह जाति है तो क्या किया जा सकता है।

21 लाख से ज्यादा की आबादी
बिहार महादलित विकास मिशन के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में मुसहर के नाम दर्ज आबादी करीब 21.25 लाख है। इनमें पूर्वी-पश्चिमी चंपारण, मधुबनी, कटिहार, नवादा, गया, पटना आदि जिले शामिल हैं। सिर्फ गया में 5.68 लाख की आबादी, जिसे यहां भुइयां बोलते हैं। नवादा में करीब 1.20 लाख। इसी तरह कमोवेश हर जगह, पर इस श्रेणी में मगध सर्वाधिक महादलित आबादी वाला क्षेत्र है।

जाति प्रमाण पत्र में भी दर्ज है यह नाम
मगध विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. प्रमोद कुमार चौधरी कहते हैं, भुइंया, मांझी, मुसहर एक ही श्रेणी में आते हैं। जाति प्रमाण पत्र में भी मुसहर लिखा जाता है। टाइटल जो हो, पर पहचान यही है। जहां तक चूहे खाने की बात है तो इसके पीछे गरीबी ही रही होगी। धीरे-धीरे यह कल्चर में शामिल हो गया।
भोला मांझी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, यह तो बाप-दादा से चला आ रहा है। इसी सवाल पर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के पुत्र विधान पार्षद डॉ. संजय कुमार सुमन कहते हैं, भुइंया, मुसहर, मांझी सब एक ही हैं। नई पीढ़ी इस पहचान से बाहर निकलना चाहती है, पर गरीबी आज भी वैसी ही है। थोड़ा बदलाव है, पर अभी बहुत वक्त लगेगा।

यह तो कर्म आधारित भी नहीं है
भारतीय समाज में जाति ऐसी स्थिर वस्तु मानी गई है, जिसमें व्यक्ति की सामाजिक मर्यादा जन्म से निश्चित होकर आजीवन अपरिवर्तनीय रहती है। हालांकि इसकी उत्पत्ति कार्य विभाजन यानी कर्म से हुई। कार्य विभाजन से उत्पन्न पेशे और पद समय के साथ वंशानुगत कर दिए गए। बावजूद इसके, खान-पान के आधार पर  जातिकरण नहीं हुआ। मुसहर अपवाद है।

- बिहार में मुसहर की आबादी : 21.12 लाख
- उत्तरप्रदेश व नेपाल की तराई में भी बड़ी संख्या
- महादलित की श्रेणी में
- साक्षरता : 9.8 प्रतिशत
- कृषि मजदूरी मुख्य काम


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