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अब सोन के अस्तित्‍व पर मंडरा रहा है खतरा, दो से तीन किलोमीटर आगे खिसक गई नदी की धारा

अमरकंटक से निकलकर बिहार को सींचने वाले सोन नद के अस्तित्‍व पर खतरा मंडराने लगा है। बालू खनन अतिक्रमण के कारण नदी की धारा सिकुड़ती जा रही है। पर्यावरण प्रेमियों को आशंका है कि ऐसी ही स्थिति रही तो यह नाले की तरह हो जाएगा।

By Vyas ChandraEdited By: Published: Thu, 15 Apr 2021 11:46 AM (IST)Updated: Thu, 15 Apr 2021 11:46 AM (IST)
अब सोन के अस्तित्‍व पर मंडरा रहा है खतरा, दो से तीन किलोमीटर आगे खिसक गई नदी की धारा
सिमटती जा रही सोन नदी की जलधारा। जागरण

उपेंद्र कश्यप, दाउदनगर (औरंगाबाद)। अमरकंटक से निकलकर बिहार में गंगा में मिलने वाले सोन के अस्तित्व पर संकट है। यदि सरकार और जनता नहीं चेती तो आने वाले दशकों में वह पुनपुन की तरह नाला या नहर की तरह सिकुड़ जाएगा। जलवायु परिवर्तन, वृक्षों का कटना और खनन इसके मुख्य कारण माने जा रहे हैं। छठी सदी में तरार देवकुंड होते हुए सोन नद रामपुर चाय की तरफ जाता था। करीब 1400 बरस में यह 10 से 25 किलोमीटर पश्चिम खिसक गया। लेकिन बीते तीन से चार दशक में ही करीब दो से तीन किलोमीटर पश्‍िचम खिसक गया। खिसकने के क्रम में सोन जो जमीन छोड़ रहा है उस पर खेती हो रही है। सोन का बाढ़ हुल्लड़ कहलाता था और दाउदनगर में महादेव स्थान के बाद डिल्ला शुरू होता था और उसके बाद जलधारा। जहां आज धोबी घाट बन गया है और पानी घुटने भर भी नहीं रहता। अब सोन में स्नान करना हो या सूर्य को अर्घ्य देना हो 2 से 3 किलोमीटर अधिक पश्चिम की दिशा में यात्रा करनी पड़ती है।  

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सोन के दोनों तरफ पेड़ लगाना ही उपाय-सुनील

सेंटर फॉर वर्ल्ड सॉलिडेरिटी संस्था से जुड़कर बीते कई वर्षों से सोन और पुनपुन पर काम कर रहे जदयू नेता सुनील कुमार सिंह का कहना है कि सोन के दोनों किनारे पेड़ लगाकर नदी के जीवन को बचाया जा सकता है। खनन को सीमित करना होगा। उन्होंने बताया कि बड़े जोत वाले किसानों को जागरूक कर उनकी जमीनों पर बड़े पैमाने पर पौधारोपण कराना होगा। यह करके ही सोन के वजूद को बचाया जा सकता है और उसे पुनर्जीवित किया जा सकता है। बताया कि राज्य सरकार की कई योजना ऐसी है जो निजी जमीन पर पौधारोपण को बढ़ावा देती है। केंद्र सरकार भी कई योजनाओं के जरिए मदद करती है। किसानों को इसके लिए आगे आना चाहिए और सोन के बाएं और दाएं की जमीन पर किसानों को पौधारोपण पर जोर देना चाहिए। ऐसा करके ही हम सोन को फिर से बेहतर जल प्रवाह वाली नदी बना सकते हैं।

बाढ़ रक्षा के लिए प्राकृतिक रचना रचना थी डिल्ला 

बीते चार दशक से प्रातः सोन की सैर करने वाले अवधेश कुमार पांडे बताते हैं कि डिल्ला खत्म हो गया। इस पर चढ़कर हम लोग कूदते थे। चढ़ने में थक जाते थे। शहर को बाढ़ से बचाने के लिए यह प्राकृतिक रचना थी। इसके बाद सोन शुरू हो जाता था। आज स्थिति यह है कि डिल्ला भी समाप्त हो गया और सोन की जलधारा भी नहीं बची। बताया कि बाढ़ अब आ नहीं रहा है। नतीजा बालू भी नहीं आ रहा। बालू अब आने की संभावना भी खत्म हो गई है। सोन के पुनपुन नदी की तरह बन जाने का खतरा है। भूतनाथ तक घर बनने लगे हैं। संभव है नाती पोता के समय सोन नहर से भी बदतर स्थिति में आ जाए।

बालू की निकासी से परेशानी 

बीते 15 वर्ष से सुबह सोन जाने वाले मृत्युंजय कुमार का कहना है कि बालू की निकासी से काफी तरह की परेशानी आई है। डिल्ला के साथ-साथ सोन का प्राकृतिक सौंदर्य भी खत्म हो गया और जलधारा सिमटती चली गयी। आज स्थिति यह है कि सोन में पानी की तलाश के लिए 2 से 3 किलोमीटर की अधिक यात्रा करनी पड़ती है। बाढ़ देखे कई दशक बीत गए। अब सोन को बचाने की जरूरत है अन्यथा आने वाले वक्त में न पानी मिलेगा, न बालू। आज ही जलस्तर कम होता जा रहा है।


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