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बोधगया के इसी मठ में 1857 के सैनिक विद्रोह में लोगों ने ली थी शरण

फोटो-35 37 38 -सनातन धर्मियों के पौराणिक स्थल को संरक्षित करने के साथ आजादी के दीवानों को परोक्ष रूप से मिली मदद ----------- इतिहास -आजादी के दीवानों बैठकें होने पर दिन और रात के भोजन की होती थी व्यवस्था - मंदिर परिसर में पांच पांडव का मंदिर आज भी मठ के अधीन मठ परिसर में भगवती अन्नपूर्णा का है सिद्ध पीठ -वर्तमान में मंदिर आवागमन मार्ग से सटे वाग्देवी सरस्वती मंदिर (समाधि ) परिसर स्थित ------------ -1892 में कृष्ण दयाल गिरि महंत के कार्यकाल में बनाया गया था आद्यशंकराचार्य मठ का आकर्षक भवन -1949 एक्ट बनने के बाद महाबोधि मंदिर से बोधगया मठ का एकाधिपत्य हुआ समाप्त -1769 में महंत की गद्दी संभालते रामहित गिरि ने मठ की संपत्ति में और किया इजाफा -1806 में बालक गिरि को महंत बनने पर छत्तीसगढ़ के जशपुर के राजा ने जमीन और कुछ गांव मठ को दिया था दान ---------------

By JagranEdited By: Published: Tue, 13 Aug 2019 08:10 PM (IST)Updated: Tue, 13 Aug 2019 08:10 PM (IST)
बोधगया के इसी मठ में 1857 के सैनिक विद्रोह में लोगों ने ली थी शरण
बोधगया के इसी मठ में 1857 के सैनिक विद्रोह में लोगों ने ली थी शरण

विनय कुमार मिश्र, बोधगया

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बोधगया स्थित आद्यशंकराचार्य के दशनामी संप्रदाय के गिरिनामा सन्यासियों का मठ। यह न सिर्फ सनातन धर्मियों के पौराणिक स्थल को संरक्षित किया, बल्कि आजादी के दीवानों को परोक्ष रूप से समय-समय पर मदद भी करता रहा। आजादी के दीवानों की जब बोधगया क्षेत्र में बैठकें होती थीं, तब मठ की ओर से उनके दिन और रात के भोजन की व्यवस्था की जाती थी। सभी दीवाने मठ में आकर परंपरागत तरीके से भोजन ग्रहण करते थे। मठ ने 1857 के सैनिक विद्रोह में बुजुर्गो और महिलाओं को संरक्षण दिया था। इसके कारण ब्रिटिश शासन मठ से काफी नाराज हुआ थी। उस वक्त मठ में एक हजार से ज्यादा साधु-सन्यासी रहा करते थे। हालांकि, मठ का वर्तमान में दिखने वाला आकर्षक भवन का निर्माण सन् 1892 के आसपास महंत कृष्ण दयाल गिरि के समय में कराया गया था। मठ द्वारा बौद्ध धर्मावलंबियों के सबसे पवित्र स्थल राजकुमार सिद्धार्थ के ज्ञान स्थली महाबोधि मंदिर को भी वर्षो तक संरक्षित रखा गया। 1949 एक्ट बनने के बाद महाबोधि मंदिर से बोधगया मठ का एकाधिपत्य समाप्त हुआ। लेकिन महाबोधि मंदिर परिसर में आज भी मठ का पौराणिक इतिहास जुड़ा है। मंदिर परिसर में पांच पांडव का मंदिर आज भी मठ के अधीन है। साथ ही वर्तमान में मंदिर आवागमन मार्ग से सटे वाग्देवी, सरस्वती मंदिर (समाधि ) परिसर स्थित है। साथ ही मठ के महंत महाबोधि मंदिर प्रबंधकारिणी समिति के पदेन सदस्य होते हैं। मठ के आकर्षक भवन का निर्माण सन 1892 के आसपास महंत कृष्ण दयाल गिरि के समय में कराया गया, जो आज भी विद्यमान है।

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मठ के महंत का इतिहास बोधगया मठ से तीन किमी उत्तर वर्तमान का अमवां गांव के समीप 1590 में गोस्वामी उद्वव गिरि उर्फ धमंडी गिरि की कुटी हुआ करती थी। अपने अपने दीक्षा के बल पर एक मृतक को जीवित कर चैतन्य गिरि नाम दिया। मठ के पहले महंत बने लाल गिरि। हालांकि, उस वक्त महंत पद के और दावेदार थे वभूत गिरि। जो मठ को छोड़कर निरंजना नदी के पार वर्तमान बकरौर गांव में एक मठ की स्थापना कर महंत बने। 1769 में महंत की गद्दी संभालते रामहित गिरि ने मठ की संपत्ति में और इजाफा किया। उस वक्त टिकारी और इचाक के राजाओं द्वारा मठ को कई गांव दान में भेंट किया गया था। 1806 में बालक गिरि को महंत बनने पर छत्तीसगढ़ के जशपुर के राजा ने कुछ गांव व जमीन मठ को दान किया। उसकी देखरेख आज भी मठ द्वारा की जा रही है। 1828 में शिव गिरि के महंत काल में अंग्रेजी शासकों के विरुद्ध कार्यकलाप में लिप्त होने की आशंका में मठ को सील कर दिया गया। पुन: एक वर्ष बाद महारानी विक्टोरिया ने महंत शिव गिरि को सिविल कोर्ट तक माफ कर दिया था और मठ की जब्त की गई संपत्ति को वापस कर दिया था। 1867 में संस्कृत के विद्वान मेहनारायण गिरि ने महंत की गद्दी संभाली और बनारस में मठ की नई शाखा खोली। लेकिन वे अपनी लंबी तीर्थ यात्रा पर जाने के क्रम में इन्होंने कृष्ण दयाल गिरि की गद्दी की मान सौंपी। तीर्थ यात्रा से वापस लौटने के पश्चत सर्वसम्मति से पुन: 1892 में उन्हें पूर्ण रूपेण महंत घोषित किया गया। इनके बाद क्रमश: 1932 में हरिहर गिरि, 1959 में शतानंद गिरि महंत बने। उनके नाम पर आज कई कॉलेज व विद्यालय संचालित हैं। 1977 में धनुष गिरि, 1983 में जगदीशानंद गिरि, 1999 में सुदर्शन गिरि और उनके निधन के पश्चात रमेश गिर मठ के महंत पद पर काबिज हैं।

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शैक्षणिक संस्थानों की

स्थापना में अहम भूमिका बोधगया मठ की शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मठ के महंत शतानंद गिरि और जयराम गिरि के कार्यकाल में जिले में शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना के लिए सैकड़ों एकड़ भूखंड और नगद राशि दान दिया गया था। मठ की भूमि पर उच्च शिक्षा का मंदिर मगध विश्वविद्यालय स्थापित है। गया कॉलेज गया, अनुग्रह मेमोरियल कॉलेज, शेरघाटी स्थित श्री महंत शतानंद गिरि कॉलेज, डोभी, फतेहपुर और सुलेबट्टा में उच्च विद्यालय की स्थापना के लिए भूखंड दान दिया गया। संस्कृत भाषा को बढ़ावा देने के लिए संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना बोधगया में कराकर दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय से संबद्धता दिलाया गया।

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मठ के मैनेजर बने थे मंत्री

मठ परोक्ष रूप से लोकसभा व विधानसभा चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को मदद करता था। इस दौरान मठ के मैनेजर जयराम गिरि ने स्वयं चुनाव लड़ने की मंशा बनाई और गुरुआ विधानसभा क्षेत्र से चुनाव मैदान में निर्दलीय उतर गए। चुनाव जीते और कपूरी ठाकुर के मंत्री मंडल में लॉटरी से कृषि एवं नदी-घाटी विभाग के मंत्री बनाए गए। हालांकि, वे मात्र पांच माह ही मंत्री रहे। दूसरी बार काग्रेस के टिकट पर गुरुआ से चुनाव लड़े और विजयी रहे। तब केदार नाथ पांडेय मुख्यमंत्री बने थे।

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पड़े हैं धर्मगुरु द्वय के पांव

आद्यशंकराचार्य मठ में सनातन धर्म के दो धर्मगुरु क्रमश: आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर व मोरारी बापू के पांव पड़े हैं। दोनों धर्मगुरुओं ने मठ के तत्कालीन महंत से सनातन धर्म की रक्षा और उत्थान तथा संस्कृत को बढ़ावा देने में हर संभव सहयोग का आश्वासन दिया था। लेकिन बाद में इसके लिए मठ प्रबंधन द्वारा धर्मगुरु द्वय से संपर्क नहीं किया गया। मोरारी बापू मठ से एक रोटी प्रसाद स्वरूप लिए थे। धर्मगुरु द्वय ने मठ के महंत सुदर्शन गिरि को कहा था कि यहां के सन्यासियों को वेद की शिक्षा देकर मर्मज्ञ बनाया जाएगा। आप चाहे तो कुछ शिष्य हमें दें। हम उन्हें वेद मर्मज्ञ बनाकर वापस आपके मठ को देंगे।

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भू आंदोलन का दंश एक समय ऐसा भी आया। जब मठ के विरोध में जोरदार आवाज उठी। अप्रैल 1975 में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के बैनर तले लोगों ने भूमि मुक्ति आंदोलन का बिगुल फूंका और जो जमीन को जोते बोए, वहीं, जमीन का मालिक होए का नारा बुलंद किया गया। 18 अप्रैल 1975 को सर्वोदयी नेता और वाहिनी के नायक जयप्रकाश नारायण, एस जगन्नाथ ने मठ के गेट पर आयोजित धरना को संबोधित किया था। यह आंदोलन वर्ष 1987 में समाप्त हुआ, लेकिन मठ की 18 हजार एकड़ भूमि में लगभग 12 हजार एकड़ को भूमिहीनों में बांट दिया गया।

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मठ में जीवंत है ढेकी प्रथा

मठ में इस भौतिकवादी युग में भी प्राचीन ढेकी, जांता और खल-मुसल प्रथा जीवंत है। इसका उपयोग आंवला, हेर, बहेरा, बड़ा नींबू आदि कूटने व पीसने के लिए किया जाता है। इससे आयुर्वेदिक दवा तैयार की जाती है। मठ की भाषा में इसे आर्शीवादी नींबू (शंखद्राव) कहा जाता है, जो पेट की समस्या में लाभकारी होता है।

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आते हैं म्यांमार के पर्यटक मठ परिसर के बारहदरी में म्यांमार के पर्यटक आते हैं। यहां पर म्यांमार के राजा मिंडोमिन द्वारा म्यांमार शैली में एक छोटा सा मंदिर बनाया गया था। बताया जाता है कि उक्त मंदिर का निर्माण राजा ने विश्वदाय धरोहर महाबोधि मंदिर के जीर्णोद्धार के समय बनवाया था। तब यहां पर म्यांमार के कारीगर रहा करते थे। यहां पर एक वर्मी लिपि में लिखा शिलालेख भी है। इस स्थल का अपने शोध कार्य के तहत निरीक्षण करने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री भी मठ परिसर में आई थी।

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जमीन व दुकान के

किराया से चलता खर्चा 1966 के अकाल में मठ द्वारा लोगों के बीच सैकड़ों मन अनाज बांटा जाता था। मठ की जमीन आंदोलन के बाद गरीबों में बांटी गई। अब मठ एक सौ एकड़ भूखंड का मालिक है। उक्त जमीन पर बंटाई से खेती होती है और जो अनाज मिलता है उससे मठ में रहने वालों का भोजन चलता है। मठ के 263 दुकानें हैं। इससे मिलने वाले किराये भी खर्चा चलाने में सहायक है। कई ऐसे दुकानदार हैं, जो वर्षो से किराया नहीं दिए हैं।

दीनदयालु गिरि,

दरबारी

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