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इस धरती पर भी पडे़ बापू के कदम, याद दिलाते हैं भष्मावशेष

तब आजादी के कई दीवाने गया में भी थे। उन्हें एक सूत्र में पिरोने के लिए बापू चार बार यहां पधारे। उनकी हर यात्रा के बाद स्वतंत्रता संग्राम में मगध का नाम चटख होता गया। गांधी स्तूप में सुरक्षित-संग्रहित उनके भष्मावेश याद दिलाते हैं कि अहिसा के उस पुजारी के समक्ष अंग्रेज कैसे चित हो गए थे।

By JagranEdited By: Published: Wed, 02 Oct 2019 02:53 AM (IST)Updated: Wed, 02 Oct 2019 02:53 AM (IST)
इस धरती पर भी पडे़ बापू के कदम, याद दिलाते हैं भष्मावशेष
इस धरती पर भी पडे़ बापू के कदम, याद दिलाते हैं भष्मावशेष

धीरज सिन्हा, गया

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तब आजादी के कई दीवाने गया में भी थे। उन्हें एक सूत्र में पिरोने के लिए बापू चार बार यहां पधारे। उनकी हर यात्रा के बाद स्वतंत्रता संग्राम में मगध का नाम चटख होता गया। गांधी स्तूप में सुरक्षित-संग्रहित उनके भष्मावेश याद दिलाते हैं कि अहिसा के उस पुजारी के समक्ष अंग्रेज कैसे चित हो गए थे। गया मोक्ष की धरती है और बगलगीर बोधगया ज्ञान की भूमि। पहचान धार्मिक है और साक्ष्य ऐतिहासिक। उसी इतिहास के पन्नों में गया से गांधीजी के साथ-संबंध का भी जिक्र है। साहित्यकार राकेश कुमार सिन्हा रवि बताते हैं कि गया और मगध परिक्षेत्र की जनता को आजादी की लड़ाई से जोड़ने के लिए गांधीजी यहां चार बार आए। सबसे पहले सन् 1921 में और आखिरी यात्रा सन् 1934 में। गांधीजी की स्मृति में गांधी मैदान का नामकरण हुआ। वहां गांधी मंडप है और उससे चंद कदमों की दूरी पर गांधी स्तूप। उस स्तूप के नीचे बापू के भष्मावशेष आज भी सुरक्षित हैं। दर्शन कर श्रद्धालु भाव-विह्वल हो जाते हैं। सोचते रह जाते हैं कि वास्तव में महात्मा गांधी राजनीतिज्ञ-कूटनीतिज्ञ थे या स्वतंत्रता सेनानी! वे आम आदमी थे या कि संत-महामानव! गांधी स्मारक से बदलकर हो गया गांधी मंडप: गांधी मंडप को पहले गांधी स्मारक के नाम से जाना जाता था। वर्षो बाद में नाम बदलकर गांधी मंडप हुआ। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सन् 1951 में 28 दिसंबर को गया के लोगों को गांधी स्मारक समर्पित किया था। इसका शिलान्यास सन् 1948 में 20 जून को तत्कालीन राज्यपाल एनएस अणे ने किया था। गांधीवादी अणे भी अग्रिम पंक्ति के स्वतंत्रता सेनानी रह चुके थे। पटना में उन्हीं के नाम पर अणे मार्ग भी है, जहां शासन-सत्ता के ऊंचे ओहदेदार निवास करते हैं।

ख्यातिलब्ध शिल्पकार उपेंद्र महारथी की देखरेख में गांधी मंडप और गांधी स्तूप की संरचना तैयार हुई। यह स्थापत्य हिदू और बौद्ध वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है। गांधी स्तूप के निर्माण में तत्कालीन जिलाधिकारी जगदीश चंद्र माथुर ने विशेष दिलचस्पी ली थी। इतिहास और आदर्श के प्रति उनकी गहरी आस्था थी। गांधी स्तूप उसका मूर्त रूप है। बिहार में सर्वाधिक पर्यटक गया ही आते हैं। इतिहास और गांधीजी के प्रति आस्था-अनुराग रखने वाले गांधी स्तूप और भष्मावेशों का दर्शन अवश्य करते हैं। अनुग्रह बाबू के अनुनय को नहीं टाल सके थे गांधीजी: दस्तावेजों के मुताबिक अगस्त 1921, 1925, जनवरी 1927 और अप्रैल 1934 में महात्मा गांधी का गया में आगमन हुआ था। राकेश कुमार सिन्हा रवि बताते हैं कि पहली बार बापू गया तीर्थ भ्रमण के दौरान आए थे। वे गांधी मैदान में सभा को संबोधित भी किए थे। तब गांधी मैदान का नाम गिरजा मैदान हुआ करता था। अनुग्रह नारायण सिंह के निवेदन पर भी एक बार वे गया आए थे। दरअसल, तब गांधीजी पटना के लिए पधारे थे, लेकिन अनुग्रह बाबू के आग्रह को वे टाल नहीं सके। प्राचार्य सुमंत बताते हैं कि गया प्रवास पर गांधीजी अपनी बकरी को भी साथ ले आए थे। दुर्योग कि गया में उसकी मौत हो गई। गांधीजी के प्रति जनमानस की आस्था ऐसी कि लोगों ने उस बकरी का दाह-संस्कार तक किया।


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