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चंपारण में मासूम बच्चों व स्त्रियों की हालत देख द्रवित हो उठा था गांधी जी का मन

गांधी जी ने नील के खेतों में बच्चों व महिलाओं के साथ होने वाले व्यवहार व मजदूरी को देख कर लोगों को शिक्षित करने का संकल्प लिया था।

By Ravi RanjanEdited By: Published: Wed, 12 Apr 2017 08:17 PM (IST)Updated: Wed, 12 Apr 2017 11:18 PM (IST)
चंपारण में मासूम बच्चों व स्त्रियों की हालत देख द्रवित हो उठा था गांधी जी का मन
चंपारण में मासूम बच्चों व स्त्रियों की हालत देख द्रवित हो उठा था गांधी जी का मन

पूर्वी चंपारण [संजय कुमार उपाध्याय]। चंपारण में जब मोहन दास करमचंद गांधी आए तो उन्होंने अंग्रेजी शासन के जुल्म को कई स्तरों पर देखा। जहां जाते वहीं समस्या सामने आ जाती। सत्याग्रह आंदोलन का आरंभ हो चुका था और गांधी जी अपने साथियों के साथ लोगों को पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए गांवों की ओर निकल पड़े थे।

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इस दौरान किसानों के साथ मजदूर और उनके परिवार की जो दशा देखी, उसने उनके मन को झकझोर दिया। वे द्रवित हो उठे। वक्त ऐसा था और पेट की आग ने इस कदर लोगों को घेर रखा था कि ब्रिटिश हुकूमत के अफसर भारतीय लोगों का शोषण हैवान की तरह कर रहे थे।

इसी के साथ मन बनाया कि यहां के गरीब लोगों की सेवा शिक्षा के बिना संभव नहीं। फिर उन्होंने साथियों से विमर्श किया औऱ इस दिशा में काम शुरू कर दिया। उस जमाने में नील के खेतों में बचपन पिस रहा था। घर की महिलाओं की लोक-लज्जा खेत में नजर आती थी। पुरुष भी खेत में अर्थात जीवन कैसे जीना है, किसी के समझ में आता नहीं था।

महात्मा गांधी ने जब इस विषय को जानने की कोशिश की तो पता चला कि चार आने की मजदूरी पानेवाला किसान भाग्यशाली माना जाता था। वरना आम तौर पर नील के खेत में दिन भऱ शरीर जलाने के बदले पुरुष को दस, महिला को छह और मासूम बच्चों को तीन आने की मजदूरी मिलती थी।

इस व्यवस्था न सिर्फ सामाजिक स्थिति को खराब कर रखा था, बल्कि एक तरह से आदमी यह भूल गया था कि उसे कैसे जीवन जीना चाहिए। परिवार की महिला और बच्चों के साथ क्या होना चाहिए। इसके मूल जड़ में सबसे बड़ी समस्या थी अशिक्षा। 

साथियों संग किया विचार औऱ शिक्षा की ओऱ बढ़ाए कदम
महात्मा गांधी की चंपारण यात्रा के दौरान ब्रजकिशोर प्रसाद और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की जोड़ी हमेशा उनके साथ रहती थी। बापू ने अपनी आत्मकथा में भी दोनों की जोड़ी की सराहना करते हुए लिखा है कि दोनों की जोड़ी अद्वितीय थी। उनके अतिरिक्त शंभूबाबू, अनुग्रह बाबू, धरनीधऱ प्रसाद और रामनवमी प्रसाद समेत कई अन्य लोगों संग बापू ने लोगों की इस पीड़ा पर चर्चा की और शिक्षण-व्यवस्था के लिए कदम बढ़ाए गए।

जब हो गया बालकों के लिए पाठशाला खोलने का निर्णय
महात्मा गांधी ने विद्यालय की स्थापना के बारे में अपनी आत्मकथा में साफ लिखा है- जैसे-जैसे मुझे अनुभव प्राप्त होता गया वैसे-वैसे मैंने देखा कि चंपारण में ठीक से काम करना हो तो गांवों में शिक्षा का प्रवेश होना चाहिए। लोगों का ज्ञान दयनीय था।

गांवों के बच्चे मारे-मारे फिरते थे अथवा माता-पिता दो या तीन पैसे की आमदनी के लिए उनसे सारे दिन नील के खेतों में मजदूरी करवाते थे। उन दिनों वहां पुरुषों की मजदूरी दस पैसे से अधिक नहीं थी। स्त्रियों की छह पैसे और बालकों के तीन पैसे की थी। चार आने की मजदूरी पानेवाला किसान भाग्यशाली समझा जाता था।

साथियों से सलाह करके पहले तो छह गांवों में बालकों के लिए पाठशालाएं खोलने का निश्चय किया। शर्त यह थी कि उन गांवों के मुखिया मकान और शिक्षक का भोजन व्यय दें, उनके दूसरे खर्च की व्यवस्था हम करें।

बन गई शिक्षकों की मजबूत टीम
विद्यालय की स्थापना के लिए गांधी जी ने सार्वजनिक रूप से स्वयं सेवकों की मांग की। उसके उत्तर में गंगाधर राव देश पांडेय ने बाबासाहब सोमण और पुंडली को भेजा। बम्बई (मुंबई) से अवंतिका बाई गोखले आईं। दक्षिण से आनंदी बाई आईं। छोटेलाल, सुरेन्द्रनाथ तथा गांधी जी के पुत्र देवदास भी आए।

इस बीच गांधी जी को महादेव देसाई और नरहरी पारीख मिल गए थे। महादेव देसाई की पत्नी दुर्गा बहन और नरहरी पारीख की पत्नी मणिबहन भी आईं। कस्तूरबा गांधी को भी बापू ने बुला लिया। शिक्षकों की टीम तैयार हो गई।

कस्तूरबा गांधी की भी शिक्षा थी नहीं के बराबर
बापू ने अपनी पत्नी कस्तूरबा गांधी को पाठशाला संचालन के लिए बुलाया तो जरूर था, लेकिन उनकी भी शिक्षा बेहद कम थी। बापू ने साफ लिखा है- कस्तूरबाई की पढ़ाई तो नहीं के बराबर थी। वहीं मणि बहन पारीख और दुर्गा बहन देसाई को सिर्फ थोड़ी सी गुजराती आती थी। इस स्थिति में पाठशाला में दो तरह की व्यवस्था हुई। लोगों को शिक्षित करनेवाली टीम अलग थी और स्त्रियों और बच्चों को नैतिक शिक्षा देने के लिए अलग टोली तैयार की गई।

राजनीति से अलग रहने को कहा था शिक्षकों को
पाठशाला की स्थापना के वक्त ही सभी लोगों को समझाया गया था कि कोई भी निलहों के विरुद्ध की जानेवाली शिकायतों में न पड़ें। बापू ने सभी सहयोगियों को कहा था- राजनीति को न छुएं। शिकायत करनेवालों को मेरे पास भेज दें। कोई अपने क्षेत्र से बाहर एक कदम भी न रखे।

बापू की बातों पर सहयोगियों ने खूब अमल किया। तभी तो बापू ने अपनी आत्मकथा में लिखा- चंपारण के इन साथियों का नियम पालन अद्भुत था। मुझे ऐसा कोई अवसर याद नहीं आता, जब किसी ने दी हुई सूचनाओं का उल्लंघन किया हो।

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मोतिहारी गांधी संग्रहालय सह स्मारक समिति के संस्थापक सचिव चंद्रभूषण पाण्डेय बताते हैं - गांधी जी ने चंपारण में शिक्षा का जो प्रयोग किया, उसे व्यवस्था ने ठीक से समझा नहीं। वरना आज शिक्षा के क्षेत्र में हम जितना आगे हैं, उससे कई गुना आगे गए होते।

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