सरस बोल मुस्की मुख पान की संस्कृति में कलकतिया पान का आसरा
मिथिला की संस्कृति में एक कहावत प्रसिद्ध है- पग-पग पोखर माछ मखान सरस बोल मुस्की मुख पान इ थीक मिथिलाक पहचान।
दरभंगा । मिथिला की संस्कृति में एक कहावत प्रसिद्ध है- पग-पग पोखर माछ मखान, सरस बोल मुस्की मुख पान, इ थीक मिथिलाक पहचान। लेकिन पान की खेती से जुड़े किसानों के मुंह की लाली समाप्त होने की ओर है। मौसम की बेरूखी और समुचित सरकारी संरक्षण के अभाव में पान की खेती करने वाले किसान इसे छोड़ अन्य व्यवसाय अपना रहे हैं अथवा रोजी-रोजगार की तलाश में पलायन को विवश हैं। एक आंकड़े के अनुसार, करीब दस हजार किसान परिवारों की आजीविका का मुख्य साधन पान की खेती थी। मगर इस गौरवशाली अतीत को बचाए रखने वाले किसान अनावृष्टि, ओलावृष्टि तो पाला की मार से कराहने को मजबूर हैं। इस दिशा में कोई कारगर वैज्ञानिक मदद भी किसानों को नहीं मिल पा रही है और न ही आर्थिक सहायता। ऐसे में इससे विमुख होने के अलावा कोई चारा उनके पास नहीं है। बड़ा मुद्दा में पान उत्पादक किसानों की पड़ताल करती तारडीह से रपट। महिया के पान दरभंगा महाराज की अतिथिशाला की बढ़ाते थे शोभा
पान की खेती के लिए तारडीह के महिया गांव की खासी प्रसिद्धि रही है। लेकिन आज पान की खेती करने वाले किसान परिवारों की स्थिति दयनीय हो गई है।महिया गांव के पान के पत्ते कभी दरभंगा महाराज की अतिथिशाला की शोभा बढ़ाते थे। आसपास के जमींदार परिवारों के यहां अतिथियों का सम्मान भी यहीं के पान से किया जाता था। महिया के पान के पत्ते की मांग जिला ही नहीं अपितु बंगाल और ओडिसा तक थी। आज आलम यह है कि गांव के लोग भी अब पान के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर हैं। एक समय था कि महिया सहित आस-पास के गांवों में पान के बड़े-बड़े बागान देखे जाते थे। समय के साथ पान की खेती करने वाले किसानों ने उपेक्षा का दंश झेलते हुए पान की खेती से मुंह मोड़ लिया। पान की खेती में अधिक लागत आती है। उपर से बाढ़, सूखा की लगातार मार झेलनी पड़ रही है। लागत के अनुरूप फसल नहीं उपजने से मिथिला में कलकतिया पान की आपूर्ति हो रही है। कलकतिया पान नहीं आए तो यहां की दुकानें भी बंद हो जाएगी और होंठ की लाली भी। अपने व्यवसाय को बचाने के लिए कारोबारी अन्य प्रदेशों के पान के पत्ते पर आश्रित हैं।गायब हो रही होठों की लाली को बचाने के लिए ना तो सरकार के पास कोई योजना है ना ही कभी कोई जनप्रतिनिधि ही उनकी सुध ली। जिसके कारण इस से जुड़े लोग अन्य प्रदेशों में मजदूरी कर अपना परिवार चला रहे हैं। ओलावृष्टि से बर्बादी के कगार पर पान की फसल :
बेनीपुर के शिवराम, बसुहाम, रूपनगर, पोहद्दी, तारडीह के महिया, कठरा, मनीगाछी के उजान, मकरंदा, सिंहवाड़ा के बनौली, सनहपुर, मनकौली, सिमरी, हनुमाननगर, केवटी एवं बिरौल के गांवों में मुख्यत: पान की खेती रही है।
एक कठ्ठा जमीन में किसानों को पान के पौधे लगाने से लेकर बागान तैयार करने तक में 13 से 15 हजार की लागत आती है। एक साल के बाद मौसम सही रहा तो आने वाले सात-आठ साल तक प्रतिवर्ष 70 से 80 हजार की आमदनी होती है। लेकिन ठंडल गल जाने और नए पते नहीं आने पर पान उत्पादक किसान छाती पीट लेते हैं। इस बार की पान की फसल को ओलावृष्टि ने बर्बादी के कगार पर ला दिया है। सबने पान उत्पादक किसानों को छला :
विनोद राउत अपनी दर्द बयां कर कहते हैं कि पान का व्यवसाय पूरी तरह चौपट हो गया है। सरकारी उदासीनता और जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा के कारण पुश्तैनी पेशा छोड़ मजदूरी कर परिवार का भरण-पोषण करना पड़ रहा है। लागत अधिक और मुनाफा कम होने की वजह से नई पीढ़ी इस खेती से मुंह मोड़ ली है। पान की खेती काफी नाजुक होती है। मौसम की मार इस पर सबसे ज्यादा पड़ती है। सरकार की तरफ से कोई सरंक्षण नहीं मिलता है।
राधे कुमार राउत कहते हैं पिछले बार आई बाढ़ में पान की पूरी फसल बर्बाद हो गई। कुछ लोग आए थे नाम लिखा, फोटो खींचा पर राहत के नाम पर आज तक कुछ नहीं मिला। सबने पान उत्पादक किसानों को छला ही है। प्रमोद राउत की मानें तो पान की खेती में काफी लागत आती है। बीज बाहर से लाना पड़ता है जो काफी महंगी है। पान की लती काफी नाजुक होती है इसे तेज धूप पानी सहित कीट पतंगों से बचाव में बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है। प्रमोद राउत कहते हैं कि पान की खेती चौपट होने से युवा पलायन कर अन्य प्रदेशों में मजदूरी करने को विवश हैं। सरकार अगर पान की खेती पर ध्यान दे तो यह फिर से अपने स्वर्णिम समय को दोहराएगा और क्षेत्र में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। राजकुमार राउत कहते हैं स्थानीय पान की खेती चौपट होने से अब कलकतिया पत्ते पर पूरी तरह निर्भरता हो गई है। ग्राहक पहले देसी पान की ही मांग करते हैं। कम उपज के कारण देसी पान महंगा मिलता है।
बाढ़ में बर्बाद हुई फसल की नहीं हुई क्षतिपूर्ति : पिछले बार आई बाढ़ में पान की फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई। काफी भाग दौड़ के बाद कुछ अधिकारी-कर्मचारी आए। किसानों के नाम एवं रकबा लिखकर ले गए। लेकिन क्षतिपूर्ति के नाम पर अब तक कुछ नहीं मिला है।
--गुलटन राउत, महिया।
देसी पान ग्राहकों की पहली पसंद है। लेकिन खपत के अनुरूप इसकी पैदावार नहीं है। ऐसे में देसी पान का पत्ता महंगा मिलता है। दुकानदारी अब पूरी तरह कलकतिया पान पर निर्भर है।
--परमेश्वर कामत, पान दुकानदार, मछैता। मौसम की बेरूखी, शासन-प्रशासन की उपेक्षा से पान का व्यवसाय पूरी तरह चौपट हो गया है। नई पीढ़ी के लोग तो पान की खेती का नाम सुनते ही बिदक जाते हैं। सभी कम लागत में ज्यादा मुनाफा चाहते हैं।
--मूंगेलाल राउत, महिया। सामान्य किसानों की समस्या को उठाने के लिए तो कई संघ और किसान मोर्चा बने हुए हैं। लेकिन पान किसानों की समस्या को उठाने वाला कोई नहीं है। एक बड़ी आबादी को रोजी-रोजगार का दूसरा साधन तलाशना पड़ रहा है।
--प्रभु राउत, महिया।