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इतिहास बनकर रह गई सावन में झूला डालने की परंपरा

बक्सर। एक समय था जब सावन माह के आरंभ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते

By JagranEdited By: Published: Tue, 28 Jul 2020 04:38 PM (IST)Updated: Tue, 28 Jul 2020 04:38 PM (IST)
इतिहास बनकर रह गई सावन में झूला डालने की परंपरा
इतिहास बनकर रह गई सावन में झूला डालने की परंपरा

बक्सर। एक समय था जब सावन माह के आरंभ होते ही घर के आंगन में लगे पेड़ पर झूले पड़ जाते थे और महिलाएं कजरी गीतों के साथ उसका आनंद उठाती थी। समय के साथ पेड़ गायब होते गए और फ्लैटनुमा इमारतों के बनने से आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया।

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ऐसे में सावन के झूले भी इतिहास बनकर हमारी परंपरा से गायब हो रहे हैं। अब सावन माह में झूले और कजरी परंपरा की तान कुछ जगहों पर ही सुनाई देते हैं। सावन माह में कजरी की अलग ही पहचान है। अब तो कहीं-कहीं कजरी सुनाई पड़ती है। अपनी परंपराओं को भूलने से समाज में तमाम विकृतियां उत्पन्न हो रही हैं। कालांतर में कजरी की धुन इतनी लोकप्रिय हुई कि शास्त्रीय संगीत के घरानों ने भी इसे अपनाकर वाहवाही लूटी। लेकिन, सावन में काली घटाओं के बीच गाए जाने वाले इस ऋतु राग पर आधुनिकता के काले बादल छा गए हैं। - उमड़ते बादल को खूब भाती है कजरी धुन एक जमाना था जब सावन महीना शुरू होते ही कजरी की धुन सुनाई पड़ने लगती थी। लेकिन, अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है। भोजपुरी के गीतकार कमल किशोर 'राजू' पारंपरिक कजरी के धुन को याद कर गुनगुनाते हुए कहते हैं ''''बदरा आई गईइले, ना अइले हमरो पियां परदेशियां ना'''' जैसी धुन अब नहीं सुनाई देती। यह पारंपरिक गीत इतनी लोकप्रिय थी कि इसे हर घरों में गाया जाता था। भोजपुरी गायक सह अभिनेता विनय मिश्रा ने ''''पियां मेहंदी लिआद मोतीझील से, जाके साईकिल से ना'''' और हरि हरि सावन में लागेला सोमारी.. आदि गीतों की धुन गुनगुनाते हुए बताया कि आज के दौर में गायक व गीतकार भी ऐसे गीतों से दूरी बना रहे हैं, जिससे यह विधा दूर होती जा रही है। - बाग-बगीचों में लगता था जमावड़ा भोजपुरी संस्कृति में कजरी एक धुन है। जिसे सावन में रिमझिम फुहारों के बीच गाया जाता है। पेड़ों की टहनियों पर झूला लगाकर बालाएं व महिलाएं झूलते हुए कभी खूब गाती थीं। वहीं, जिन विवाहिताओं के पति दूरस्थ स्थानों पर होते थे, उनको इंगित करते हुए विरह गीत सुनना अपने आपमें लोककला का ज्वलंत उदाहरण हैं। सावन को अपनी मस्ती में सराबोर देखना हो तो किसी गांव में चले जाइए। जहां पेड़ों की डालों पर झूला डाले किशोरियां या फिर महिलाएं अनायास ही दिख जाती थीं।

- जीवन को प्रकृति से जोड़ती है कजरी कजरी धुन की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, यह कहना कठिन है। परन्तु यह तो निश्चित है कि मानव को जब स्वर और शब्द मिले और जब लोक जीवन को प्रकृति का कोमल स्पर्श मिला होगा, उसी समय से कजरी हमारे बीच है। सुप्रसिद्ध लोकगीत गायक विष्णु ओझा और अशोक मिश्रा बताते हैं कि संगीत विधा में दो राग प्रमुख हैं। कजरी को भोजपुरांचल में राग मल्हार की रागिनी माना जाता है। ऐसे में कजरी का सैकड़ों साल पुराना इतिहास है। - विदेशों में भी लोकप्रिय है कजरी विशेष रूप से मिर्जापुर, वाराणसी, बलियां व बक्सर समेत सभी भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में ही कजरी गायी जाती है। लेकिन, उतर भारत के अलावा कजरी के दीवाने सूरीनाम, त्रिनिदाद व मॉरीशस जैसे भोजपुरी भाषी देशों में भी हैं। जहां भोजपुरी के नामचीन गायकों द्वारा स्टेज शो में इस पारंपरिक कजरी की फरमाइश होती है।


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