मुगल शासन काल से हो रही जाग्रत दुर्गा महारनी की पूजा, जानिए कहां है यह मंदिर
मुगलकाल से ही भागलपुर के चंपानगर स्थित महाशय राज परिवार द्वारा महाशय ड्योढ़ी दुर्गा मंदिर में की जा रही महिषासुर मर्दिनी की पूजा आसपास के जिलों में काफी प्रसिद्ध है।
भागलपुर [विकास पाण्डेय]। मुगलकाल से ही भागलपुर के चंपानगर स्थित महाशय राज परिवार द्वारा महाशय ड्योढ़ी दुर्गा मंदिर में की जा रही महिषासुर मर्दिनी की पूजा आसपास के जिलों में काफी प्रसिद्ध है। यहां की देवी काफी जाग्रत मानी जाती हैं। उनके दर्शन व मनौती मांगने के लिए दूर-दूर के हजारों श्रद्धालु मंदिर आते हैं। मंदिर के वर्तमान सेवायत अरधेंदु घोष उर्फ पलटन घोष ने बताया कि लगभग 600 साल पूर्व मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में उनके दरबार में कानूनगो महाशय श्रीराम घोष को यहां पूजा शुरू करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। तब से यहां उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी हर वर्ष उत्सवपूर्ण ढंग से यहां दुर्गा महारानी की पूजा करती आ रही है।
यहां प्रारंभिक काल से ही चार भुजा वाली देवी की विशाल प्रतिमा के साथ हर दिन पूजित छोटे आकार की अष्टधातु की दशभुजा दुर्गा की पूजा करने की परिपाटी चली आ रही है। इस मंदिर में देवी दुर्गा की प्रतिमा के ऊपर भगवान शिव की प्रतिमा को रखकर उनकी भी पूजा किए जाने की परंपरा है। पूजा-आराधना के लिए करीब 10 दिन पूर्व बोधन के दिन ढोल-बाजे के साथ महाशय परिवार के सदस्य व पुरोहित नदी तट पर जाकर देवी को आमंत्रण देते हैं। बोधन से सप्तमी को उनकी प्रतिमा बिठाने, पूजा व विसर्जन तक की अवधि कुल 17 दिनों की होती है। राज परिवार का कोष सदा भरा रहे इस कामना से पूजा अवधि के प्रारंभ से ही कुबेर की भी पूजा करने व बोघन, चतुर्थी व षष्ठी को कौड़ी लुटाने की यहां अनूठी परंपरा चली आ रही है। श्रद्धालुओं का विश्वास है कि मंदिर से लुटी हुई कौड़ी घर में रखने से कुबेर का आशीर्वाद बना रहता है।
इस अवसर पर ड्योढ़ी के विशाल मैदान में एक पखवाड़े तक मेला भी लगता है। उसमें मनोरंजन के साधनों सहित विभिन्न प्रकार की दुकानें लगती हैं। पलटन घोष ने बताया कि मुगल बादशाह ने महाशय तारकनाथ घोष अकबरनामा में यहां दुर्गा महारानी, बटुक भैरव, वासुदेव रायजी व शिवजी महाराज की पूजा अर्चना के लिए उनके नाम से सुल्तानगंज से कहलगांव स्थित बटेश्वरस्थान की गंगा नदी व कई बाग-बगीचे की बंदोबस्ती की थी। अंग्रेज सरकार ने भी पूरे शासनकाल तक उसे बहाल रखा। उनकी मछलियों से बटुक भैरवनाथ को नित्य भोग लगता था तथा आय से सलाना दुर्गापूजा तामझाम के साथ किया जाता था। लेकिन 1980 में कहलगांव में सक्रिय मछुआरों व सामाजिक कार्यकर्ताओं की संस्था गंगा मुक्ति आंदोलन द्वारा इस देवोत्तर संपत्ति को मुक्त कराने व अन्य मांगों को लेकर जबर्दस्त आंदोलन शुरू किया गया।
उसके मद्देनजर सरकार ने हाईकोर्ट व वहां हार जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया। 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने गंगा के इस हिस्से को देवोत्तर संपत्ति से मुक्त कर सरकार को सौंपने का आदेश सुनाया। तब से यहां की दुर्गापूजा की शानोशौकत शनै-शनै घटती चली गई। पलटन घोष बताते हैं कि लेकिन नगर व देश की शांति के लिए चली आ रही इस दुर्गापूजा में आज भी महाशय परिवार के वर्तमान वारिश पूजा की पुरानी पद्धति व नियम-निष्ठा को पूर्ववत कायम रखे हुए हैं। आज भी वहां देवी स्वरूपा नव पत्रिका की पूजा, बाहर के बजाय देवी का घर की बनी मिठाई व पकवान से ही भोग लगाने, मंदिर में बोधन से दशमी 17 दिनों तक अखंड दीप जलने, जुआ-थप्पा खेलने, अष्टमी को पाठे की बलि देने आदि अनुष्ठान बदस्तूर जारी हैं। समारोह का संपूर्ण खर्च वर्तमान बारिश ही उठा रहे हैं। सरकार, जिला प्रशासन व देवस्थान संरक्षण व उन्नयन कमेटी की ओर से अबतक न कोई क्षतिपूर्ति और न पूजा आयोजन के लिए कोई राशि प्रदान की गई है।