1960 में मनिहारी गंगा घाट स्टेशन पर हुई थी फिल्म वंदिनी की शूटिंग, आज वहां बह रही गंगा की धार
साठ के दशक में सदाबहार अभिनेता अशोक कुमार व अभिनेत्री नूतन की वंदना फिल्म की कई ²श्यों की शूटिंग कटिहार जिले के ही मनिहारी घाट स्टेशन पर की थी। लेकिन आज वह कटाव की भेंट चढ़ गया है।
कटिहार [मनीष कुमार सिंह]। स्वर्णिम इतिहास का कंगाल वर्तमान अपने आप में एक बड़ा सवाल है। क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वालों से, सत्ता में आसीन रहने वालों से फिर यूं कहें पूरी व्यवस्था से। बात कहीं से शुरु करें, कसक साथ हो लेती है। साठ के दशक में बनी मशहूर फिल्म वंदिनी व उस फिल्म के सदाबहार गाने ओ मेरे मांझी.... ले चल पार... शायद आज भी अधिसंख्य लोग सुनकर मुग्ध हो जाते हैं। सदाबहार अभिनेता अशोक कुमार व अभिनेत्री नूतन की इस फिल्म की कई ²श्यों की शूटिंग सन 1960-61 में कटिहार जिले के ही मनिहारी घाट स्टेशन पर हुई थी। फिल्म में मनिहारी गंगा घाट का जिक्र भी हुआ था और फिल्म के अंतिम ²श्य में नायक व नायिका उस तीन मंजिला स्टीमर पर सवार थे, जो कभी रेलवे के सौजन्य से ही साहेबगंज व मनिहारी घाट के बीच चला करती थी। यद्यपि जहां उस समय उक्त स्टीमर रुकती थी और जहां यह शूङ्क्षटग हुई थी, आज वहां गंगा की कल-कल धारा बह रही है। यही दर्द यहां के लोगों के लिए आज भी असहनीय है। लोग मांझी यानि अपने जनप्रतिनिधियों को बस कोस गंगा के रहमोकरम पर जी रहे हैं।
शेष भारत का पूर्वोत्तर राज्यों को जोडऩे का था बड़ा केन्द्र
दरअसल 70 के दशक तक मनिहारी घाट स्टेशन का महत्ता राष्ट्रीय स्तर की थी। उस समय मनिहारी घाट स्टेशन अमदाबाद के गोलाघाट, रामायणपुर में हुआ करता था। मनिहारी घाट स्टेशन एक बड़े बंदरगाह के रुप में विकसित किया गया था। सामरिक ²ष्टि से ही इस घाट स्टेशन का विकास किया गया था। 1962 में चीन से व फिर 1971 में पाकिस्तान से हुए युद्ध के दौरान यह बंदरगाह महत्वपूर्ण कड़ी साबित हुआ था। सैन्य साजो सामान कोलकाता से वाया साहेबगंज होते हुए स्टीमर से मनिहारी गंगा घाट स्टेशन तक पहुंचता था और फिर यहां से ट्रेन के माध्यम उसे पूर्वोत्तर राज्यों तक भेजा जाता था। कुछ सामानें जहाज से ही गंगा के रास्ते अन्य जगहों से भी आती थी। उस समय गंगा में स्टीमर भी रेलवे की ही चलती थी और टिकट चेङ्क्षकग के लिए भी टीसी हुआ करता था। व्यापारिक ²ष्टिकोण से भी यह काफी महत्वपूर्ण था और काफी तादाद में जरुरत की सामानें इसी रास्ते पूर्वोत्तर के राज्यों में पहुंचती थी। इस घाट स्टेशन पर उस समय रेलवे कर्मियों के लिए तकरीबन सात सौ क्वाटर भी थे और कई अधिकारी भी वहां रहते थे। बुजुर्गों की मानें तो उक्त बंदरगाह पर लगभग सात-आठ सौ से ज्यादा लोग केवल कुली का कार्य कर अपना जीवकोपार्जन करते थे। इसके अलावा चाय, पान, नाश्ता की दुकानों के माध्यम काफी तादाद में लोग रोजगार से जुड़े थे। यहां से दार्जिङ्क्षलग मेल, ब्रह्मपुत्र मेल, नार्थ बंगाल एक्सप्रेस जैसी ट्रेनें भी खुलती थी।
एक खपड़े के कमरे में कैद है समृद्ध इतिहास, सिसक रहे लोग
आज इस क्षेत्र का समृद्ध इतिहास वर्तमान मनिहारी स्टेशन जो मनिहारी घाट स्टेशन का अस्तित्व समाप्त होने के बाद लगभग बीस किलोमीटर दूरी पर मनिहारी में अवस्थित है, वहीं एक खपरैल के कमरे में कैद है। कुछ यादगार तस्वीर इसी कमरे में संजोकर रखी गई है। दरअसल समय के साथ गंगा व महानंदा की फुफकार बढ़ती गई। पहले मनिहारी घाट स्टेशन को गंगा ने निगला फिर उसके बाद काफी दूरी तरह रेल लाइन भी गंगा के गर्भ में समाती चली गई। आलम यह रही कि बस्ती दर बस्ती का अस्तित्व मिटते चला गया। दर्द यह रहा कि तब से अब तक गंगा के इस रुख पर लगाम नहीं लगाया जा सका। बाद में फरक्का ब्रिज बन जाने से भी इसका महत्व घटता चला गया। जबकि फरक्का ब्रिज पहले साहेबगंज व मनिहारी घाट स्टेशन के बीच ही प्रस्तावित था, परंतु स्थानीय जनप्रतिनिधि व तत्कालीन सरकार इस मामले में उदासीन बनी रही और पश्चिम बंगाल यह उपलब्धि झटक ले गई। आज भी बाढ़ व कटाव का बड़ा दर्द यहां के लोग झेल रहे हैं। रोजगार के साथ यहां की खूबसूरती को भी ग्रहण लग चुका है...। लोगों की नैया मझधार में फंसी और मांझी ढूढ़ते नहीं मिल रहा है...।