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कहां गुम हो गई चंपा : चंपा के साथ बहती है अंगवासियों की आस्था की धार

चंपा नदी अंग और चंपानगरी की पहचान है इसी तरह यह सदियों से यहां के लोक कंठों में रची-बसी बिहुला-विषहरी की गाथा का पर्याय भी है। चंपा के जल-कणों में यह गाथा समाहित है।

By Dilip ShuklaEdited By: Published: Thu, 21 Nov 2019 01:46 PM (IST)Updated: Thu, 21 Nov 2019 01:46 PM (IST)
कहां गुम हो गई चंपा : चंपा के साथ बहती है अंगवासियों की आस्था की धार
कहां गुम हो गई चंपा : चंपा के साथ बहती है अंगवासियों की आस्था की धार

भागलपुर [जेएनएन]। चंपा नदी प्राचीन अंगभूमि और इसकी राजधानी रही चंपानगरी की पहचान है, जिसकी धारा के साथ यहां के जनमानस की आशा-आकांक्षा व आस्था के अक्श समाहित हैं। पड़ोस के बांका जिले की चंदन (चानन) नदी से बेरहमा के पास एक धार के रूप में निसृत होकर चानन क्षेत्र के चंदन वृक्षों की खुशबू और जगदीशपुर-रजौन के कतरनी चावल की महक को सहेजे जब इस क्षेत्र में आकर यह चंपा नदी का नाम धारण करती है, तो यहां के चंपक वृक्षों की गमक को समेटकर एक नैसर्गिक वातावरण का निर्माण करती है। इसी के साए में पलकर कालक्रम में इस भूमि ने सुख-समृद्धि की अकल्पनीय ऊंचाईयों को प्राप्त किया था। यही चंपा का अतीत है।

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बौद्ध ग्रंथ (मच्झिम निकाय) के अनुसार चंपानगरी में चंपक वृक्षों की बहुतायत के कारण ही इसका नाम (चंपा) पड़ा है। (चाम्पेय जातक) के अनुसार चंपा नदी अंग और मगध के बीच विभाजक-रेखा का काम करती थी, जो आगे चलकर इसकी पहचान-सी बन गयी। आज भागलपुर की प्रसिद्धि सिल्क सिटी के नाम से है, जिसके रेशमी धागों की चमक को चंपा नदी की आबो-हवा ने ही सदियों से निखारा है। कभी चंपा नदी के तट पर बसे अंग और इसकी राजधानी चंपा नगरी की समृद्धि का आलम यह था कि 1815 ई. में अंग्रेज विद्वान विलियम फ्रैंकलिन जब एनशिएंट पालिबोथरा अर्थात प्राचीन पाटलिपुत्र की तलाश में निकले तो इस क्षेत्र को ही पाटलिपुत्र होने का अनुमान लगाकर एक विस्तृत शोध-ग्रंथ लिख डाला, जो लंदन से प्रकाशित है।

यदि चंपा नदी अंग और चंपानगरी की पहचान है, तो इसी तरह यह सदियों से यहां के लोक कंठों में रची-बसी बिहुला-विषहरी की गाथा का पर्याय भी है। चंपा के जल-कणों में यह गाथा समाहित है। यह कथा है भगवान शिव की मानस-पुत्री मनसा विषहरी और चंपानगर के समृद्ध वणिक शिव-भक्त चांदो सौदागर के बीच हुए संघर्षों व चांदो की परम तेजस्वी पुत्रवधू बिहुला के द्वारा उनके बीच किए गए समन्वय की, जिसके पश्चात देवी विषहरी की पूजा-अर्चना भूलोक में प्रारंभ होती है।

हठी शिवभक्त चांद सौदागर द्वारा देवी विषहरी की पूजा अस्वीकार किए जाने पर क्रोधित देवी के कोप से सुहागरात को ही पति बाला की सर्पदंश से मृत्यु होने के बावजूद शोकातुर बिहुला हिम्मत नहीं हारती है और अपने मृत पति के जीवन को वापस प्राप्त करने की ठानती है। कथानुसार देवशिल्पी विश्वकर्मा से एक मंजूषानुमा नौका बनवाकर वह पति के शव के साथ चंपा के गोकुला घाट से प्रस्थान करती है और मार्ग की बाधाओं का सामना करते इंद्रलोक जाती है। वहां वह अपनी निष्ठा से देवताओं को प्रसन्न कर अपने पति के जीवनदान के साथ अपने श्वसुर चांदो सौदागर की खोई हुई धन-संपदा वापस प्राप्त करती है। इसके बाद चंपानगर लौटने पर बिहुला के अनुनय पर चांदो सौदागर देवी मनसा की पूजा को तैयार हो जाते हैं, और, तब से ही भूलोक पर मनसा विषहरी की पूजा-अर्चना की परंपरा प्रारंभ हो जाती है।

बिहुला-विषहरी की गाथा को समेटे इस चंपा नदी की ही महिमा है कि जहां एक सामान्य नारी बिहुला अपने संकल्प से देवतुल्य गरिमा को प्राप्त करती है, वहीं मनसा जैसी देवी की पृथ्वीलोक में पूजन की लालसा भी पूरी होती है। प्रतिवर्ष अंग क्षेत्र में बड़े पैमाने पर भाद्र मास में होनेवाली बिहुला-विषहरी पूजन का अनुष्ठान चंपा तट पर ही बारी कलश की पूजा से शुरू होता है और इसका समापन भी चंपा नदी में व्रती महिलाओं द्वारा मंजूषा के विसर्जन के साथ होता है।

(लेखक - शिव शंकर सिंह पारिजात, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के उप निदेशक पद से सेवानिवृत्त और इतिहास के जानकार हैं)

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