कहां गुम हो गई चंपा : चलो! चंपा को महकाते हैं, चहकाते हैं...
आज स्थिति यह है कि आप चंपा तट पर बमभोकरानाथ शिवालय या नदी पर बने पुल के आसपास कुछ देर के लिए खड़े भी नहीं रह सकते। सड़ांध आपके नथुने फाड़ने लगती है और सिर चकराने लगता है।
[मनोज झा]। भागलपुर शहर की चर्चित कचौड़ी गली के मुहाने पर कतरनी चावल और चूड़ा बेचने वालों का एक छोटा-सा झुंड आपको रोजाना ग्राहकों से बहस करते या दलीलें देते मिल जाएगा। बेचने वाले यह कहते नहीं थकते कि चावल-चूड़ा असली है, लेकिन खरीदार हैं कि आसानी से मानने को तैयार नहीं होते। दरअसल, उनके जेहन में बसी कतरनी की वह अद्भुत सुगंध अब उन्हें नहीं मिलती, इसलिए वे उसे असली मानने को तैयार नहीं होते। मतलब कि यह खास सुगंध कहीं खो गई है। और यह सुगंध सिर्फ कचौड़ी गली के मुहाने से ही नहीं, बल्कि जिले के जगदीशपुर प्रखंड के ग्राम्य अंचलों से भी लुप्त हो गई है।
चांदन नदी के दोनों छोर पर फैली जमीन में पाई जाने वाली वो खास किस्म की नमी भी लुप्त हो गई है। वो लार टपकाने वाले लाल-लाल तरबूज भी लुप्त होते जा रहे हैं। इलाके के तीज-त्योहार, रस्म-रिवाज और परंपराओं का वे लास और आनंद भी कहीं ओझल हो रहे हैं। दरअसल यह सब एक नदी के मिटने के दुखांत किस्से हैं। उस अभागी नदी का नाम चंपा है। आज सरकारी अमले की तो छोड़िए, चंपा तट के बाशिंदे भी उसे नदी नहीं, नाला ही कहते हैं। सवाल है कि कभी चंपा के फूलों का गहना पहनने वाली और कतरनी की खुश्बू ओढ़कर इतराने वाली चंपा नाला बनी कैसे? साथ ही सवाल यह भी कि इस पौराणिक नदी के माथे से नाले का यह बदनुमा दाग आखिर मिटेगा कैसे?
कभी भागलपुर का हिस्सा रहे बांका जिले के अमरपुर प्रखंड स्थित बेरमा गांव के पास चांदन नदी से एक धारा अलग कटती है, जो अपने पूरे प्रवाह पथ में चंपा के नाम से प्रसिद्ध है। चंपा के उद्गम स्थल पर आज न तो कोई धारा दिखती है न कोई नदी। प्रवाह तो खैर दूर की बात है। यदि वहां कुछ दिखता है तो बालू के ऊंचे-ऊंचे टीले, उन टीलों पर लंबी-लंबी घास और जेसीबी से खोदे गए गहरे ग़ड्ढे। उद्गम बिंदु तो कहीं नजर ही नहीं आता। ऐसा लगता है कि नदी अपना सफर शुरू करने से पहले ही रास्ता भूल-भटककर कहीं आसपास सिमट गई है। बाद में प्रवाह मार्ग में इधर-उधर से आने वाला पानी और गांवों की गंदगी को समेटे यह नदी अपना विद्रूप चेहरा लेकर भागलपुर प्रवेश करती है। यहां शहर के नाले और कूड़ा-कर्कट रही-सही कसर पूरी कर चंपा को सड़ा-गला देते हैं। आज स्थिति यह है कि आप चंपा तट पर बमभोकरानाथ शिवालय या नदी पर बने पुल के आसपास कुछ देर के लिए खड़े भी नहीं रह सकते। सड़ांध आपके नथुने फाड़ने लगती है और सिर चकराने लगता है।
ऐसा भी नहीं है कि नदी की इस दुरावस्था के कारणों से आमजन या व्यवस्था बेखबर है। सब जानते हैं कि चंपा का मुंह, सीना और पेट कौन चीर-फा़ड़ रहा है। और फिर अकेली चंपा की ही बात क्यों की जाए। बिहार में ही गंगा की तमाम सहायक नदियों का आज कमोबेश यही हाल है। सभी के पाट और घाट सिमट रहे हैं। खासकर दक्षिण बिहार की स्थिति ज्यादा भयावह है। यहां घोघा, चांदन, गेरुआ, हाहा, बड़ुआ, अंधरी, जमुनिया जैसी दर्जनों नदियों का संजाल है। ऐसा भी नहीं था कि बरसात में उफनने वाली ये नदियां बाकी समय सूखी रहती थीं। यहां तक कि जेठ की तपती दुपहरिया में भी इनका प्रवाह पथ एक कंचन धार लेकर गंतव्य गंगा तक बहती रहती थी। इसके चलते इन नदियों के दोनों छोर पर फैली जमीन में धान की जबरदस्त पैदावार होती थी। इन नदियों के सिक्त रहने का एक बड़ा लाभ यह भी था कि दक्षिण बिहार के बांध और उनसे निकलने वाली नहरों में भी पानी लबालब रहता था। आज ये बांध और नहर भी पानी के लिए तरसने लगे हैं।
दरअसल, चंपा या अन्य नदियों की व्यथा मानवीय हवस और संवेदनहीनता की क्रूर कथा है। नदियों समेत अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर मौजूदा खतरा शहरीकरण की उपज है। भूमंडलीकरण के बाद जैसे-जैसे शहरीकरण की रफ्तार तेज हुई, ईंट, बालू और गिट्टी की मांग भी आसमान छूने लगी। पक्के मकान बनने थे तो सारी चीजें जरूरी थीं। जमीन से मिट्टी, नदी से बालू और पहाड़ से गिट्टी निकालने के लिए इन तीनों संसाधनों का अंधाधुंध दोहन शुरू हो गया। पेड़ और जंगल काटकर पहले समतल जमीन बनाई गई। फिर ईंट बनाने के लिए इसी जमीन को खोदा जाने लगा। खोदाई से मिट्टी की उर्वरता प्रभावित हुई तो रासायनिक खाद के बूते हम उसकी रही-सही ताकत निचोड़ने लगे और जमीन बंजर होने लगी। इसी प्रकार नदियों के पेट को चीरकर रात-दिन बालू खोदा जाने लगा। दक्षिण बिहार की कई नदियों की तलहटी में आज बालू की जगह कीचड़ और मिट्टी दिखाई देती है।
अब तो बरसात में भी ये छोटी नदियां इतराना भूल-बिसर गई हैं। ज्यादातर नदियों के उद्गम स्थल और मुहाने या तो अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं या संकरे हो गए हैं। इसके चलते कुछ नदियां रुग्ण हो गईं तो कुछ मिटने के करीब हैं। यही हाल पहाड़ों का है। पड़ोसी राज्य झारखंड के राजमहल, पाकुड़ जैसे सीमावर्ती इलाके के पहाड़ आज भयावह दिखाई देते हैं। गिट्टी माफिया ने इनका रंग और रूप दोनों बिगाड़ दिया है। कभी काले और ऊंचे दिखने वाले ये पहाड़ आज लाल, गहरे और खाईनुमा दिखाई देते हैं। सुप्रीम कोर्ट तक ने बालू खनन पर रोक लगाई, लेकिन शायद ही इस आदेश-निर्देश का कहीं कोई अनुपालन हुआ हो। बिहार में खनन के जितने भी अड्डे हैं, वहां रात तो रात, दिन के उजाले में भी नदियों का सीना चीरा जा रहा है। प्रशासन की जानकारी में आने के बाद थोड़ी बहुत सख्ती होती है, लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात जैसी स्थिति बन जाती है।
बालू और गिट्टी में पैसा इतना है कि माफिया और उसके मददगार मानवीय समाज की सांस्कृतिक और सभ्यतागत जरुरतों के साथ-साथ पर्यावरणीय सरोकारों को भी ताक पर रख चुके हैं। इन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है कि हरियाली मिट रही है, जमीन बंजर हो रही है, नदियां दम तोड़ रही हैं और पहाड़ भरभरा रहे हैं।
ऐसे विकट हालात के बीच जल, जीवन और हरियाली मिशन को लेकर बिहार सरकार की ताजा पहल अंधेरे में रोशनी दिखाती है। मिशन की शुरुआत में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपना संकल्प मजबूती से दोहराया है। इस संकल्प को पूरा करने के लिए यह जरूरी होगा कि सरकार की कार्यदायी एजेंसियां और विभागों के साथ-साथ समाज भी कमर कसे। फाइलों और सेमिनारों की जगह सरजमीन पर कुछ करके दिखाया जाए। कुआं, आहर, पईन और तालाब की तलाश सच्चे मन से हो। माफिया के मजबूत तंत्र से दो-दो हाथ करने का संकल्प लिया जाए और अतिक्रमण हटाने के क्रम में छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, कमजोर और रसूखदार का भेद सिरे से दरकिनार कर दिया जाए। शायद तब जल, जीवन और हरियाली का मिशन अपने मुकाम पर पहुंचेगा। और यदि यह सब कुछ मुमकिन हुआ तो तय मानिए कि नाला फिर से नदी बन उठेगी, कतरनी की खुश्बू लौट आएगी और अपनी चंपा फिर से चहक उठेगी।
(लेखक दैनिक जागरण बिहार के स्थानीय संपादक हैं।)