... जब यदुवंशियों ने अपनी सारी संपत्ति बेचकर सुभाष बाबू के चरणों में रखा दिया था
विदेशी सरजमीं से देश को आजादी दिलाने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। उसकी 75वीं वर्षगांठ पर पेश है उस समर की सेनानी आशा चौधरी के संस्मरण।
भागलपुर [विकास पाण्डेय]। विदेशी सरजमीं से देश की आजादी दिलाने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने द्वितीय आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। उसमें जापान सहित दक्षिण एशियाई देशों के देशभक्त भारतीयों का समुद्रवत समर्थन हासिल हुआ था। आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च कमांडर नेताजी सुभाष चद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय फौज ने बर्मा की सीमा पर अंग्रेजी फौज के साथ जबर्दस्त लोहा लिया था। आजाद हिंद फौज की 75वीं वर्षगांठ पर पेश है उस समर की चश्मदीद गवाह आशा चौधरी के महत्वपूर्ण संस्मरण...
आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च कमांडर नेताजी सुभाष चद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय फौज की बर्मा की सीमा पर अंग्रेजी फौज से जाे लड़ाई हुई थी, उस दौरान मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। साथ ही अंग्रेज हवाई सेना द्वारा नापाम बम बरसाकर जंगलों को जला दिए जाने से आजाद हिंद फौज व उसकी महिला टुकड़ी रानी झांसी रेजिमेंट के सिपाहियों के छिपने के स्थानों पर संकट आ गया। नेताजी को बरसात भर के लिए लड़ाई स्थगित करनी पड़ी। उस लड़ाई में भागलपुर के दो स्वतंत्रता सेनानियों आजाद हिंद फौज के सेक्रेटरी जनरल आनंद मोहन सहाय तथा उनकी पुत्री व रानी झांसी रेजिमेंट की सेकेंड लेफ्टिनेंट आशा चौधरी का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
भागलपुर के पुरानी सराय स्थित रानी झांसी रेजिमेंट की वयोव़द्ध सेकेंड लेफ्टिनेंट आशा चौधरी कहती हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रणनीति थी कि बारिश के बाद दोगुनी शक्ति के साथ फिरंगियों के खिलाफ लड़ाई छेड़ी जाए, लेकिन इसी बीच जापान के नागासाकी व हिरोसीमा पर अमेरिका द्वारा एटम बम गिरा दिए जाने से उसकी कमर ही टूट गई। वह आजाद हिंद फौज को सहयोग करने की स्थिति में नहीं रह गया। चौधरी बताती हैं कि नेताजी की योजना देश को आजाद कराकर उसकी बागडोर महात्मा गांधी जी और कांग्रेस के हाथों में सौंपने की थी।
दृढ़ देशभक्त थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस
आशा चौधरी का कहना है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस दृढ़ प्रतिज्ञ देशभक्त स्वाधीनता सेनानी थे। उन्होंने तत्कालीन शक्तिशाली देश जापान के सहयोग से भारत को स्वतंत्र करने का बीड़ा उठाया था। कुछ अपरिहार्य कारणों से भले ही उनके उस अभियान को सफलता नहीं मिल पाई थी, लेकिन उस युद्ध के बाद ब्रिटिश सल्तनत इतनी भयभीत हो गई थी कि आखिरकार उसे देश छोड़कर जाने का फैसला करना पड़ा था।
बनीं रानी झांसी रेजिंमेंट की सेनानी
वह बताती हैं कि 1944 में 17 वर्ष की उम्र में वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में गठित आजाद हिंद फौज की सहयोगी रेजिमेंट रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल हुई थीं। इनके पिता आनंद मोहन सहाय नेताजी के निकट सहयोगी और आजाद हिंद फौज के सेक्रेटरी जनरल थे। उनकी माता सती सहाय पश्चिम बंगाल के चोटी के कांग्रेसी नेता व बैरिस्टर चित्तरंजन दास की भांजी थीं। सती सहाय देशभक्त महिला व स्वतंत्रता सेनानी थीं।
पिता की गया में हुई थी नेताजी से पहली मुलाकात
गया कांग्रेस अधिवेशन में नेताजी सुभाष बोस अध्यक्ष चित्तरंजन दास के निजी सचिव बन कर आए थे। वहां श्रीमती चौधरी के पिता आनंद मोहन सहाय को चित्तरंजन दास के कैंप की सुरक्षा का दायित्व मिला था। नेताजी से सहायजी की पहली भेंट वहीं हुई थी। वहां नेताजी ने उन्हें जापान में रहकर जापानी आलाकमान, राजनेताओं व स्थानीय प्रबुद्ध नागरिकों से संपर्क बनाए रखने की सलाह दी थी। उन्होंने उनसे कहा था संभव है भविष्य में जापान के सहयोग की उन्हें जरूरत पड़े।
23 साल की उम्र में जापान चले गए पिता
वह बताती हैं उसके बाद पिताजी आनंद मोहन सहाय 23 वर्ष की उम्र में जापान चले गए थे और वहां लंबे समय तक रहकर जापान सहित दक्षिण पूर्व एशियाई देशों यथा, सिंगापुर, मलेशिया आदि देशों में भारतीय स्वतंत्रता प्रेमियों के कई संगठन बनाकर भारत की आजादी के लिए वातावरण तैयार किया था। उनके वे संगठन नेताजी के जापान आने व द्वितीय आजाद हिंद फौज का गठन करने पर सहायक सिद्ध हुए थे।
ऐसा मिली रानी झांसी रेजिमेंट में जगह
वह बताती हैं कि उनकी मां का नेताजी सुभाषचंद्र बोस से पारिवारिक संबंध था। श्रीमती चौधरी बताती हैं कि नेताजी के जर्मनी से सिंगापुर आने पर एक दिन मां व इनके चाचाजी, इनके व इनकी बहन रजिया के साथ नेताजी से भेंट करने गईं। वहां इन्होंने नेताजी से दोनों बेटियों को रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल करने का आग्रह किया तो 1944 में आशा जी को उसमें शामिल कर लिया गया था। इससे पूर्व बैंकाक में इन्हें नौ माह की युद्ध संबंधी कड़ी ट्रेनिंग दिलाई गई थी। उसमें इन्हें राइफल चलाना, एंटी एअर क्राफ्ट गन चलाना, युद्ध के तरीके, गुरिल्ला युद्ध की बारीकियां आदि का प्रशिक्षण दिलाए गए थे।
सिंगापुर, मलाया व बर्मा के युद्ध में रहीं सक्रिय
देश को आजादी दिलाने के लिए ब्रिटिश फौज से युद्ध के दौरान वे सिंगापुर, मलाया (अब मलेशिया) और बर्मा के युद्ध मैदान में सक्रिय रहीं थीं। इस दौरान उन्हें कई सप्ताह तक रेजिमेंट की नायक कर्नल लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में बर्मा के घने जंगलों में रहना पड़ा था। वहां खाने-पीने की समस्या तो दूर बम से जख्मी होने पर भी महिला सैनिक लड़ती रहती थीं।
इनके अनुसार, हमारी सेना को मणिपुर की ओर आगे बढ़ते देख हतप्रभ ब्रिटिश सेना ने लड़ाकू विमान से अंधाधुंध नापाम बम बरसाने शुरू कर दिए। इससे हमारे छिपने के ठिकाने, पेड़-पौधे जला डाले गए, कई सिपाही हताहत हो गए, कई जख्मी हो गए। कई महिला सिपाही भी गंभीर रूप से जख्मी हो गईं थीं। उन सबों को अस्पताल पहुंचाया गया।
इसके बावजूद देश को शीघ्र आजाद करने की ललक के कारण हमें पीछे हटना गंवारा नहीं था। पर इसी बीच जापान पर एटम बम गिरा दिया गया तो वह भी हमें सहयोग करने की स्थिति में नहीं रह गया। ऐसे में नेताजी ने आगे फिर युद्ध शुरू करने की मंसा से सैनिकों से तत्काल युद्ध विराम करने की घोषणा कर सभी सैनिकों को बर्मा के मेमयो बुला लिया।
देश को आजादी दिला कांग्रेस को सौंपना चाहते थे सत्ता
आशा चौधरी बताती हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की योजना थी कि आजाद हिंद फौज के सिपाही लड़ाई में ब्रिटिश सेना को पराश्त कर देश के स्वाधीनता आंदोलन के सिपाहियों से जा मिलेंगे और फिरंगियों से भारत माता को स्वाधीन करा लेंगे। नेताजी कहा करते थे कि उनकी व आजाद हिंद फौज की जिम्मेदारी सिर्फ भारत को आजाद करना है। उसके बाद सत्ता महात्मा गांधी व कांग्रेस के हाथों में सौंप दी जाएगी।
देशभक्तों ने लिखी त्याग की अनूठी इबारत
बीते दिनों की याद को कुरेदते हुए आशाजी उस समय की एक आंखों देखी घटना के बारे में बताती हैं कि आजाद हिंद फौज के खर्च के लिए फंड की जरूरत पड़ती थी। 1944 में नेताजी बैंकाक में थे। वहां यूपी व पश्चिम बिहार के कई देशभक्त यदुवंशी रहते थे। वे वहां दूध का व्यवसाय करते थे। एक पशुपालक ने अपने बेटे को आजाज हिंद फौज व पुत्री को रानी झांसी रेजिमेंट में भर्ती करा दिया।
अपनी गौशाला, पशु आदि बेच कर मोटी राशि जुटाई और जमा सोने-चांदी व पूरी राशि नेताजी के चरणों पर रख कर कहा कि उनके पास जो कुछ था उसे देश को समर्पित कर दिया। अब वे दोनों बचे हैं। उन्हें भी देश की सेवा में लगा लिया जाए। तब नेताजी ने उन्हें गले से लगाते हुए अपना बॉडीगार्ड बना लिया और उनकी पत्नी सावित्री देवी को रानी झांसी रेजिमेंट में सेविका के रूप में बहाल कर लिया था। आशा जी कहती हैं-हमलोग उन्हें मां कह कर पुकारते थे।
छिपकर रहने वाले नहीं थे सुभाष चंद्र बोस
नेताजी का निधन कब और किन परिस्थितियों में हुआ उस पर आज भी संशय बना हुआ है। इस संबंध में आशा चौधरी का कहना है कि इन्होंने व उनके पापा नेताजी के निकट सहयोगी व द्वितीय आजाद हिंद फौज के सेक्रेटरी जनरल आनंद मोहन सहाय ने बहुत पहले ही सरकार तथा जांच आयोगों को भारी मन से बता दिया था कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस ताइवान के फारमोसा में 1945 में हुए विमान दुर्घटना में दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से शहीद हो चुके हैं। उनकी पवित्र अस्थि-राख जापान के टोक्यो स्थित रेंकोजी मंदिर में रखी हुई है। वहां से उसे स्वदेश लाया जाए। लेकिन देश के चोटी के नेताओं को न उनकी बातों पर भरोसा हुआ था और न नेताजी की अस्थि राख स्वदेश लाई गई। समय-समय पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवित होने की खबरें आने के बारे में इनका कहना है कि नेताजी जैसे दृढ़ देशभक्त इतने लंबे समय तक छिप कर रहने वाले नहीं थे।
सहाय ने नेहरू से की थी नेता जी की अस्थि राख स्वदेश लाने की पेशकश
आशा चौधरी का कहना है कि देश को आजादी मिलने के बाद पापा आनंद मोहन सहाय सिंगापुर, वियतनाम आदि कई देशों के राजदूत बनाए गए थे। नई दिल्ली में एक दिन पापा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से जापान के टोक्यो स्थित रेंकोजी बौद्ध मंदिर में रखी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पवित्र राख लाने की पेशकश की थी। उसपर पंडित नेहरू ने कहा था, ठीक है मैं तुम्हें उसे लाने के लिए विशेष जंगी जहाज देता हूं। तुम जापान से उसे ले आओ। लेकिन जरा सोचो कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिजन अगर यह कह दें कि वह नेताजी की अस्थि-राख नहीं है, तब हमारी स्थिति क्या होगी? पापा का कहना था कि पं. नेहरू के इस तर्क को सुन कर वे खामोश हो गए थे।