यहां पर नदियों से टूट रही सांस्कृतिक व धार्मिक आस्था की कड़ी
जल व पर्यावरण संरक्षण के लिए सांस्कृतिक जुड़ाव महत्वपूर्ण माना जाता है लेकिन हाल के दिनों में मेला व धारमिक अुनष्ठान की परंपरा विलुप्त हो रही है।
कटिहार [नीरज कुमार]। नदियों के मायके के रूप में जाना जाने वाला बिहार का कोसी व सीमांचल के इलाके में लोगों का नदियों से सांस्कृतिक एवं धार्मिक आस्था की कड़ी टूटने के कारण जहां नदियों के अस्तित्व पर संकट पैदा कर रहा है। वहीं पर्यावरण संरक्षण के लिए भी यह अच्छा संकेत नहीं है। इस इलाके में बहने वाली आधा दर्जन नदियां विलुप्त हो चुकी है। अभिशाप के रूप में मानी जाने वाली कोसी नदी नेपाल से बहती हुई भीमनगर के रास्ते 260 किमी दूरी तय कर कुर्सेला के समीप गंगा नदी में मिलती है। इस नदी से सांस्कृतिक जुड़ाव कई सौ वर्ष पुराना है। कोसी नदी के कोप से बचने के लिए कटिहार सहित कोसी क्षेत्र में कोसी पूजन एवं नदी पर आधारित लोकगीत गाए जाने की परंपरा थी। गंगा एवं महानंदा नदी के किनारे भी पांच दशक पूर्व तक आस्था का केंद्र पीपल पेड़ के नीचे थान हुआ करता था।
बांध ने भी आस्था को पहुंचाई ठेस
नदी विशेषज्ञों के मुताबिक नदियों को बांधने एवं तटबंध निर्माण के कारण पिछले छह दशक में नदी किनारे 60 हजार से अधिक पीपल के पेड़ कोसी और सीमांचल के इलाके में काटे गए। इसके कारण नदियों का कटाव और बाढ़ की विभीषिका हर साल बढ़ रही है। नदियों की प्रकृति एवं आध्यात्मिक महत्व समझे बिना ही इसे नियंत्रित करने की योजना से भी नदी जल से सांस्कृतिक रिश्ता टूट रहा है। सांस्कृतिक अवमूल्यन और नदियों में प्रदूषण तेजी से बढ़ा।
किन स्थानों को थी ज्यादा प्रसिद्धि
पांच दशक पूर्व तक गंगा, कोसी एवं महानंदा नदी के किनारे पूर्णिया एवं कोसी प्रमंडल के जिलों में सांस्कृतिक एवं धार्मिक गतिविधियों के चार दर्जन से अधिक स्थान थे। कटिहार में तेजनारायणपुर के समीप गंगा नदी के किनारे लगने वाला चतुआर मेला, महानंदा नदी के तट पर नंदपुर एवं पूर्णिया जिले में कोसी नदी के तट पर कौशिकीपुर मेला की प्रसिद्धि राज्य भर में रही है। आदिवासी समाज का भी नदियों से सांस्कृति दूरी नदी के अस्तित्व के लिए खतरा माना जा रहा है। झारखंड में मयूराक्षी नदी के तट पर प्रसिद्ध जनजातीय हिजला मेला भी अब महज औपचारिकता निभाने भर के लिए किया जाता है। जल संरक्षण के क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञ बताते हैं कि इलाहाबाद से लेकर फरक्का तक कभी 32 स्थानों पर पशु मेला लगा करता था। लेकिन अब इसकी संख्या महज आधा दर्जन रह गई है। पशु मेला सांस्कृतिक व आध्यात्मिक महत्व को अपने में समेटे होता था। पूर्णिया के दमका में जन्मे सूफी कवि शेख किफायत व 17 वीं शताब्दी में सुपौल में भक्त कवि लक्ष्मीनाथ परमहंस की कविताओं में भी गंगा व कोसी नदी के आर्थिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक महत्व की चर्चा है।