अब धमाकों की जगह कड़कनाथ के बांग से यहां हो रही सुबह, गांव की बदल गई तस्वीर, जानिए
इस इलाके की सुबह बंदूक-गोली और बम के धमाकों से होती थी। 12 नंबर और 18 नंबर का आपराधिक गिरोह आपस में टकरा कर कभी भी सड़कों को लाल कर देता था। आज यहां के युवा आत्मनिर्भर भारत के लिए स्वरोजगार की ओर मुड़ चुके और समृद्वि हैा
बांका [राहुल कुमार]। धोरैया सीमा से लगा रजौन का एक गांव दुर्गापुर की की सुबह कड़कनाथ के बांग से हो रही हैा कड़ाके ठंड और कुहासों के बीच मुर्गा का बांग युवाओं को बिस्तर छोडऩे को मजबूर कर रहा है। होमियोपैथ चिकित्सा से जुड़े वीरेंद्र के बासा पर मुर्गों का बांग थमने का नाम नहीं ले रहा है। वे खुद भी अब अपने फार्म में कड़कनाथ, ग्राम प्रिया, वनराजा जैसी देशी प्रजाति के मुर्गे का चूजा तैयार कर रहे हैं। कुंजबिहारी सिंह भी इसी गांव में देशी मुर्गा पालन से जुड़े हैं। वे खुद सौर उर्जा से चालित दाना तैयार करने की चक्की लगा बैठे हैं।
स्वदेशी दाना खाकर तीन महीने में ढ़ाई किलों तक तैयार हो रहा देशी मुर्गा
स्वदेसी तरीके से तैयार दाना खाकर ही उनका देसी मुर्गा तीन महीने में ढाई से तीन किलो का बन रहा है। एक-एक कड़कनाथ से एक हजार रूपया में उनके घर से खरीदा जा रहा है। दुर्गापुर ही नहीं आसपास के गोसाईंचक, गोङ्क्षवदपुर, नवादा, शिवनचक, खरबा, खरौनी, दर्जीकित्ता आदि गांव के युवाओं में मुर्गा पालन रोजगार का रूप ले चुका है। कुछ देशी तो कुछ पॉल्ट्री मुर्गा पालकर नए रोजगार का रास्ता खोल चुके हैं।
बीते डेढ़ दशक से इलाके में हुआ है नया सबेरा
डेढ-दो दशक में इलाके में नया सवेरा हुआ। सड़कों की पहुंच बढ़ी ही। गांव-गांव स्वरोजगार की आंधी चल पड़ी। बंदूक-गोली वाले हाथों ने स्वरोजगार की कमान थाम ली। कोई देशी तो कोई पॉल्ट्री मुर्गा का फार्म चला रहा है। कहीं मछलियां नीली क्रांति का संकेत दे रही है तो कई युवा आधुनिक खेती से लोगों को आकर्षित कर रहे हैं।
तीन सौ रुपये प्रति किलो बिक रहा है देशी मुर्गा
देसी मुर्गा पालन से जुड़े कुंजबिहारी बताते हैं कि घर के अंडे से ही वे चूजा तैयार कर रहे हैं। एक चूजा तीन महीने में दाना खाकर ढाई से तीन किलो का हो रहा है। इस देशी मुर्गा की कीमत प्रति किलो 300 रूपया से कम नहीं मिलती है। घर से उनका मुर्गा बाजार तक जा रहा है।
कभी सड़के होती थी खून से लाल, अब बह रही है शांति और समृद्वि की बायार
दरअसल, डेढ़-दो दशक पूर्व तक इस इलाके की सुबह बंदूक-गोली और बम के धमाकों से होती थी। 12 नंबर और 18 नंबर का आपराधिक गिरोह आपस में टकरा कर कभी भी सड़कों को लाल कर देता था। आदमी की जान मुर्गे से भी सस्ती थी। इस गैंगवार में दो दर्जन से कम लोगों की जान नहीं गई। नतीजा, लोगों का इस इलाके में शादी-ब्याह तक मुश्किल हो गया।