संरक्षण के अभाव में दम तोड़ रहा सुपौल का घरेलु उद्योग, गुमशुदा हो रहीं पटेर की चटाई
सुपौल का घरेलु उद्योग घर-घर बनने वाली पटेर की चटाई थी। वहीं कास कोसी के बरपे कहर के बाद घर बनाने के काम आता था। पटेर की चटाई की डिमांड पहले बढ़ी लेकिन अब संरक्षण के अभाव के चलते ये घरेलु उद्योग दम तोड़ता दिखाई दे रहा है।
संवाद सूत्र, सरायगढ़(सुपौल)। कास-पटेर उगाना कोसी की बलुआही धरती की प्रकृति रही तो चुनौतियों को अवसर में बदलना कोसी के लोगों की विशेषता। इन्हीं कास-पटेर से लोग जीविकोपार्जन का माध्यम तलाश लेते थे। पटेर की चटाई बना लोग अच्छी कमाई कर लेते थे। यहां बनी चटाई के खरीदार दूर-दूर के लोग थे लेकिन संरक्षण के अभाव में सुपौल का घरेलू उद्योग दम तोड़ने के कगार पर पहुंच गया है। यहां बनी चटाई कभी इस इलाके की पहचान होती थी, जो गुमनामी में जाने को तैयार है।
- कभी थी पहचान, अब हो रही गुमनाम
- चुनौतियों को अवसर में बदलना कोसी के लोगों की है विशेषता
- कास-पटेर उगाना कोसी की बलुआही धरती की है प्रकृति
- पटेर की चटाई बना लोग कर लेते थे अच्छी कमाई
- उचित संरक्षण के अभाव में दम तोड़ने के करीब पहुंचा यह घरेलू उद्योग
कोसी के कछार पर उग आते थे जंगल
कोसी नदी से प्रभावित इलाकों में भले ही खेती कोसी की मर्जी से होती हो लेकिन कोसी के कछार पर तो कास-पटेर के जंगल उग आते थे। बाढ़ बाद कास-पटेर में फूल आने के बाद लोग समझ जाते थे कि अब बारिश नहीं होगी और बाढ़ से राहत मिलेगी। इसके साथ ही शुरू हो जाती थी कास-पटेर की कटाई।
कास से लोग बाढ़ में बह गए घर तैयार करते थे। वहीं, पटेर की चटाई खासकर महिलाएं बनाती थी। पटेर की बहुलता होने के कारण चटाई का निर्माण घर-घर होने लगा और इसे नाव पर लाद बेचने के लिए बाजार ले आते थे। धीरे-धीरे यह प्रसिद्धी बाहर फैली और इसके खरीदार बढ़ते गए।
2010 के बाढ़ बाद धंधा हुआ मंदा
कुछ वर्ष पूर्व तक बड़े पैमाने पर चटाई का निर्माण हो रहा था जिसकी अच्छी कीमत भी मिलती थी। लेकिन आज चटाई निर्माण कार्य में लगी महिलाएं इस धंधे से उदासीन हो रही हैं। इसका मुख्य कारण पटेर की कमी और उचित संरक्षण का अभाव है।
इसके अलावा 2010 में कोसी नदी के प्रलयंकारी बाढ़ से चटाई निर्माण में जुटे बनैनियां, बलथरवा, गौरीपट्टी पलार सहित अन्य गांव के लोग पूरी तरह विस्थापित हो गए। विस्थापित लोग पूर्वी कोसी तटबंध के विभिन्न स्परों सहित अन्य जगहों पर जा बसे जहां पटेर खरीद कर लाना पड़ता है। अब खासकर महादलित वर्ग के सरदार जाति के लोग ही चटाई निर्माण में जुटे हैं।
उचित संरक्षण की दरकार
चटाई तैयार होने के बाद पहले भपटियाही पहुंचती थी। यहां से सुपौल, सहरसा, खगडिय़ा, मधेपुरा, बेगूसराय, दरभंगा, समस्तीपुर आदि जगहों तक इसका व्यापार होता था। लेकिन इस कार्य में जुटे लोगों को किसी तरह से सरकारी स्तर से बढ़ावा नहीं दिया जा रहा है।
चटाई निर्माण में लगी सुपौल की महिलाएं बताती हैं कि चटाई बनाने के लिए पटेर और रस्सी की जरूरत होती है। एक चटाई को बनाने में 75 रुपये का खर्च आता है और वह मात्र एक सौ रुपये में बिकती है। पटेर कटने के समय में सस्ता मिल जाता है लेकिन पर्याप्त पैसे नहीं होने से भंडारण नहीं कर पाती है। बाद में कीमत काफी बढ़ जाती है। महिलाएं बताती हैं कि अगर सरकार की ओर से मदद मिले तो यह रोजगार बन सकता है।