काला सोना की चमक में झुलस रहा बचपन, स्कूल से टूटा नाता
दरभंगा और मधुबनी से काफी संख्या में लोग मखाना फोडऩे के लिए इस क्षेत्र में आते है। जिले सहित आसपास के इलाकों में इनका समूह एकत्रित होकर मखाना फोड़ी का कार्य करते हैं।
कटिहार [नंदन कुमार झा]। मिथिलांचल के काला सोना (मखाना) की धमक अब सीमांचल तक पहुंच चुकी है। बेहतर मुनाफा और उत्पादन के कारण इस क्षेत्र में किसान तेजी से मखाना की खेती की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इस चलते मखाना फोडऩे का व्यवसाय भी समृद्ध हो रहा है। इस व्यवसाय में काफी तादाद में बच्चों का बचपन भी झुलस रहा है। दरभंगा व मधुबनी से काफी संख्या में लोग मखाना फोडऩे के लिए इस क्षेत्र में आते है। जिले सहित आसपास के इलाकों में इनका समूह एकत्रित होकर मखाना फोड़ी का कार्य करते हैं।
मुख्य रूप से कोढ़ा, डंडखोरा, कदवा, आजमनगर, प्राणपुर आदि क्षेत्रों में मखाना की व्यापक खेती होती है और यहां फोड़ी भी सजता है। छह माह तक उनका प्रवास इसी क्षेत्र में रहता है। इस दौरान उनके परिवार और बच्चे भी यहां रहते हैं। इन बच्चों का स्थायी ठिकाना नहीं होने से उनकी पढ़ाई व अन्य सुविधाएं छिन जाती हैं। इन परिवार के बच्चे भी मखाना फोडऩे में उनका सहयोग करते हैं।
महिलाओं की रहती है विशेष जिम्मेदारी, साथ देते हैं बच्चे
हाल के वर्षों में जिले में मखाना का रकवा बढ़ा है। इसे तैयार करने की कला में माहिर दरभंगा व मधुबनी के दक्ष परिवारों की विशेष डिमांड रहती है। इस कार्य में पुरुषों के साथ महिलाओं की भी विशेष जिम्मेदारी रहती है। जहां एक ओर पुरूष कच्चा माल का प्रबंध कर बाजार उपलब्ध कराते हैं। वहीं परिवार की महिलाएं मखाना सूखाने से लेकर फोडऩे तक का काम करती है। इस काम में बच्चों से भी सहयोग लिया जाता है। मखाना फोड़ी के कार्य के दौरान प्रत्येक परिवार को एक से डेढ़ लाख तक की आमदनी होती है। इसके कारण हर वर्ष बड़ी संख्या में लोग परिवार और बच्चों के साथ इस क्षेत्र में पहुंचते हैं।
नहीं होता स्थाई ठिकाना, नामांकन से वंचित रहते हैं बच्चे
मिथिलांचल से पहुंचे लोग का निश्चित ठिकाना नहीं होता। हर साल इनका प्रवास और ठिकाना बदलता रहता है। अधिक उत्पादन वाले क्षेत्रों का वे चयन कर हर साल अपना आशियाना सजाते हैं। इनमें कोढ़ा प्रखंड के गेड़ाबाड़ी, डंडखोरा के भमरैली चौक, कदवा के सोनैली बाजार व चांदपुर, प्राणपुर के लाभा सहित पश्चिम बंगाल के हरिचंद्रपुर, समसी सहित अन्य इलाकों में इनकी अस्थाई बस्ती बन चुकी है। मखाना फोड़ी के काम में जुटे विनोद साहनी, दिलीप मुखिया, राघो मुखिया, अशर्फी साहनी, जोगेंद्र साहनी आदि ने बताया कि रोजगार की तलाश में हर साल वे इन क्षेत्रों में आते हैं। इसके भरोसे ही उनका परिवार चलता है। इस दौरान बच्चे साथ रहते हैं। उनकी परवरिश की कमी और शिक्षा से दूर रहने का उन्हें मलाल तो है, लेकिन पेट की भूख के आगे वे विवश हैं।