Kosi news: केलांचल को चाहिए कृषि आधारित उद्योग, हर साल सिमटता जा रहा केले की खेती का रकबा
बिहार के कोसी क्षेत्र में कृषि आधारित उद्योगों की लंबे समय से मांग होती रही है। हर चुनाव में यह मुद्दा भी बनता है लेकिन समस्या का समाधान नहीं हो पाता है।
कटिहार [नंदन कुमार झा]। केलांचल के नाम से मशहूर कटिहार जिले में पनामा बिल्ट नामक रोग के साथ कृषि आधारित उद्योग के अभाव से केले की खेती का रकवा वर्ष दर वर्ष सिमटता जा रहा है। किसानों के लिए भले ही एक से बढ़कर एक योजनाएं चलाई जा रही हो। बीज अनुदान से लेकर डीजल अनुदान की घोषणाएं हो रही है। अनुदानित दर पर पौधा मुहैया कराया जा रहा हो, लेकिन किसानों की वास्तविक अपेक्षाएं अब भी पूरी नहीं हुई है।
वैज्ञानिक पद्धति के प्रसार से उत्पादन में वृद्धि के साथ लागत भी कम हुई है, लेकिन अपेक्षित लाभ अब भी किसानों को नहीं मिल पा रहा है। कृषि आधारित उद्योग की स्थापना न होने से किसानों में मायूसी बढ़ रही है। कृषि आधारित उद्योग लगाने की घोषणाएं होती रही है मगर यह घोषणा जमीनी आकार नहीं ले पाई है। केला के उत्पादन के बाद भी इसके बाजार के लिए किसान अन्य राज्यों पर निर्भर हैं। इसके कारण उन्हें समुचित मुनाफा नहीं मिल पाता है। केला का रकवा सिमटने का यह एक बड़ा कारण बना है।
किसानों को नहीं मिल रहा शत प्रतिशत लाभ
पनामा बिल्ट से निदान के लिए किसानों को टिश्यू कल्चर पौधे की खेती के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। साथ ही अनुदान का भी प्रावधान होने के बाद भी बाजार का अभाव व अपने यहां कृषि आधारित उद्योग की कमी किसानों में रूझान नहीं ला पा रही है। किसानों को अनुदानित दरों पर कृषि उपकरण भी उपलब्ध कराए जाने को लेकर लगातार प्रयास किये जा रहे है। साथ ही किसानों को उन्नत खेती के लिए प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। किसानों को मिलने वाले अनुदान के लिए आज भी किसान कार्यालयों के चक्कर लगाने को मजबूर हैं। ङ्क्षसचाई की जटिल समस्या भी किसानों को परेशान कर रही है। लागत के अनुसार मुनाफा न मिलने के कारण छोटे किसान किसानी से पीछे हट रहे हैं।
चुनावी वादा तक सिमटा है कृषि आधारित उद्योग
कृषि आधारित उद्योग की स्थापना हर चुनाव में किसानों की प्रमुख मांग रही है और यह चुनावी मुद्दा बनता रहा है। राज्य से लेकर राष्ट्रीय स्तर के नेता अपने भाषण में इसकी प्रासंगिकता की खूब चर्चा करते हैं और कृषि आधारित उद्योग की स्थापना की घोषणा भी होती है। वर्षों से यह महज चुनावी वादा बनता रहा है। लोस चुनाव के दौरान भी यह मुद्दा प्रमुखता से उठा था। जबकि, विस चुनाव में भी किसानों का यही मु़द्दा रहेगा।